Thursday 6 October 2016

COP प्रस्तुत करते हैं

पिन

लेखक - अंकित निगम

"खट" की दो क्रमिक ध्वनियों ने मुख्य द्वार खुलने और फिर बंद होने का आभास तो दिया किन्तु पुनः पूर्व जैसी ही शांति छा गई। ये प्रतिदिन जैसा नहीं था, प्रतिदिन इस समय द्वार खुलते ही पूरा घर मानसी की मधुरिम आवाज़ से गूँज उठता था और उसकी शैतानियां घर के बाक़ी सदस्यों को भी चीखने चिल्लाने पर बाध्य कर देती थीं, पर आज मानसी बिना किसी आवाज़ के सीधे कमरे में चली गई, ऐसा पहली बार हुआ था अतः मानसी की माँ का चिंतित होना स्वाभाविक था।
"मानसी, क्या हुआ बेटा? उदास हो?"
"कुछ नहीं माँ, बस ऐसे ही"
माँ के प्रश्न का बड़े रूखेपन से जवाब दिया मानसी ने लेकिन माँ तो माँ है, उसे अपनी बिटिया के परिवर्तित व्यवहार का कारण जानना ही था, अतः फिर पूँछा
"कहीं चोट वोट लगी है क्या या फिर आज अमन की टीम से हार के आई हो?"
"हम्म"
मानसी से बहुत मद्धिम स्वर में उत्तर दिया और माँ की गोद में सर रख दिया, माँ ने भी बड़े प्यार से बेटी के सर पर उँगलियाँ फेरते हुए कहा- "ये तो खेल का हिस्सा है बेटा, कोई जीतता है तो कोई हरता है, इसमें ऐसे मुह लटकाने वाली क्या बात है, और वैसे भी तू रोज़ तो जीतती है अमन से, आज वो जीत गया तो क्या हुआ।"
माँ के शब्द मानसी के कानों में जा तो रहे थे पर दिमाग में बड़ी बुआ की साल भर पहले कही बातें गूँज रही थीं-
"कल से तेरा कबड्डी खेलना बंद, एक तो लड़कों वाले खेल खेलती है ऊपर से लड़कों के साथ खेलती है कोई लाज शर्म तो है ही ना इस लड़की को, अरे खेलना ही है तो लड़कियों के साथ खेला कर"
“ पूरे गांव में गिन कर पांच लड़कियां खेलती हैं कबड्डी तो क्या ढाई-ढाई की टीम बनाकर खेलें और वैसे भी लड़कों के साथ खेलने में बुराई क्या है। ”
"आठवीं जमात में आ गयी है पर अकल ढेले भर की नहीं है इस लड़की में, अरे लड़का-लड़की में कुछ अंतर है कि नहीं, मानसी की अम्मा कुछ समझाओ अपनी लाड़ली को"
बुआ की इस खरी खोटी के बाद माँ ने भी मानसी को समझाने का प्रयत्न किया- "देखो बेटा माना की लड़का लड़की में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए पर ऐसे खेल लड़कियां लड़कों के साथ नहीं खेलतीं। "
किन्तु प्रत्येक तर्क मानसी के हट के समक्ष व्यर्थ सिद्ध हुआ। मानसी का कबड्डी प्रेम ना तो कम हुआ और ना ही उसने खेलना बंद किया , किन्तु आज मानसी को उन सब बातों का अर्थ अक्षरशः समझ आ रहा था, उसकी आँखें नेपथ्य में निहार रहीं थीं और मन आज हुए घटनक्रम में खोने लगा था।
मानसी के घर से चार मकान छोड़ एक गली थी जिस पर मुड़ते ही पहला घर अमन का था, इस घर का वातावरण भी मानसी के घर जैसा ही था, यहाँ पर भी दो गुमसुम सी आँखें सामने रखी पुस्तक को एक टक निहार रहीं थीं, वो पुस्तक जिसकी जिल्द हर तरफ से खुली हुई थी और बीच में काले स्केच पैन से सुलेख किया गया था -
नाम- अमन शर्मा
कक्षा - IX 
विषय - नैतिक शिक्षा
अमन की माँ ने भी ठीक वही प्रश्न किया जो मानसी की माँ ने किया था- "क्या हुआ बेटा, उदास हो?" शायद हर माँ का हृदय अपनी संतान के हृदय से एक जैसा ही जुड़ाव रखता है, पर अमन ने प्रश्न का उत्तर प्रश्न से ही दिया, वो प्रश्न जो शायद उसके दिमाग में बहुत देर से ज्वार के समान हिलोरें मार रहा था - "माँ, हमें नैतिक शिक्षा की पुस्तक क्यों पढ़ाई जाती है ?",
"ये कैसा प्रश्न है अमन?",
"बताओ ना माँ।" अमन ने आशा भरी दृष्टि से देखा तो उसकी माँ ने उत्तर देने का प्रयास किया - "ताकि हम नैतिक मूल्यों को सीखें और उन्हें अपने जीवन में उतार सकें, पर तुझे क्यों जानना था।"
"बस ऐसे ही।" अमन की दृष्टि पुनः अपनी पुस्तक पर टिक गयी, साथ ही माँ की भी
"अरे इस किताब की जिल्द कैसे खुल गयी, सारी पिनें निकाल दीं, अब तेरे बाबूजी से फिर कहना पड़ेगा दफ़्तर से स्टेपलर लाने को, पता है ना तुझे कि वो कितना बिगड़ते हैं...."
अमन की माँ बोल रही थी पर अमन की तंद्रा कहीं और थी।
"कबड्डी, कबड्डी, कबड्डी, कबड्डी"
के स्वर के साथ मानसी लड़कों के पाले में चहलकदमी कर रही थी, इस चाल के पश्चात् लड़कों की हार लगभग तय थी क्यूँकि पाले में अकेला अमन ही बचा था, बाकि लड़के पहले ही मर चुके(बाहर होना) थे। अमन कभी बाएं तो कभी दायें जाकर खुद को मानसी के स्पर्श से दूर रखने का प्रयास कर रहा था और दूसरी तरफ से दोनों दल अपने अपने साथी के नाम का त्वरित उच्चारण कर रहे थे। प्रतिदिन विद्यालय की छुट्टी के बाद ये प्रतियोगिता होती थी और ये सिलसिला पिछले पांच वर्षों से अनवरत चला आ रहा था। पर आज इस खेल में इन दो दलों के अतिरिक्त नियति भी अपने दांव दिखाने वाली थी।
"भाई कैसे भी कर के इसे मार दे अगर आज भी हार गए तो ये लगातार दसवीं हार होगी।"
अमन के एक साथी ने लगभग गिड़गिड़ा कर कहा था। अमन को भी आज पराजय स्वीकार न थी किन्तु असंख्य प्रयासों के उपरांत भी मानसी ने उसकी उंगलियों को स्पर्श कर ही लिया और हिरणी के समान अपने पाले की तरफ मुड़ गयी, अब पराजय टालने का एकमात्र उपाय था कि अमन मानसी को उसकी स्वास उखड़ने तक अपने पाले में ही रोक ले। अमन ने मानसी को पकड़ने के लिए अपना हाथ बढ़ाया और यहीँ नियति ने अपनी चाल चल दी, अमन का हाथ मानसी के कंधे के स्थान पर उसकी शर्ट के कॉलर के आगे वाले हिस्से पर जा कसा और एक तेज़ झटके से मानसी की शर्ट के बटन एक एक कर अलग होते चले गए। अमन ने सहसा ही अपना हाथ पीछे खींच लिया और मानसी,जो कि लड़खड़ाकर गिर गयी थी, ने अपनी शर्ट को तेज़ी से लपेट लिया। अचानक से सारे शोर ने सन्नाटे की चादर ओढ़ ली। कौन जीता, कौन हारा अब इसकी किसी को परवाह नहीं थी, किसी ने ध्यान तक नहीं दिया कि मानसी पाले के इस पार गिरी या उस पार। स्थिति की जटिलता को भांपकर मानसी की सहेलियों ने उसको घेर लिया, उसके गालों पर अश्रुधारा स्पष्ट रूप से दिखने लगी थी। आज प्रथम बार उसे अपने लड़की होने की सामाजिक विवशता का अनुभव हुआ था। सभी लड़के सर झुकाए खड़े थे, अमन को तो स्वयं में एक अपराधी सदृश्य अनुभूति होने लगी थी। सभी के चेहरों पर मानो सफेदी छा गई थी। चारों तरफ सन्नाटा व्याप्त था। सन्नाटे की इस चादर को बस्ता खुलने की एक मद्धिम ध्वनि ने हटाया, शायद अमन ने अपने अपराधबोध को कम करने का कोई मार्ग सोंच लिया था। उसने अपने बस्ते से एक पुस्तक निकाली, फिर बॉक्स और उससे गोला प्रकार, इसके बाद बड़े सधे हाथों से उसने किताब की जिल्द में लगी एक पिन के मुड़ने वाले स्थान पर गोला प्रकार का नुकीला वाला सिरा फंसाया और पिन को सीधा कर के बाहर निकाल लिया, इसीप्रकार एक एक कर उसने जिल्द से सारी पिन निकाल लीं और उन्हें हाथ में लेकर मानसी के पास आ गया और मानसी की शर्ट के निचले हिस्से के दोनों सिरों को एक के ऊपर एक रखा, उसमें अंगूठे की सहायता से पिन फंसाई और उन्हें पीछे से मोड़ दिया। दोनों में कोई संवाद तो नहीं हुआ पर मानसी ने उसे रोका भी नहीं, अमन की तरह उसे भी आभास था कि वो ऐसी खुली शर्ट के साथ घर नहीं जा सकती थी। स्त्री मर्यादा की प्रत्येक सीमा का पालन करते हुए अमन ने धीरे धीरे उन पिनों से मानसी की शर्ट को ठीक वैसे ही बंद कर दिया जैसे वो बटन से बंद थी।
सभी लड़कों ने इधर उधर बिखरे बटन उठाकर मानसी की सहेली को दिए, फिर वो सभी उसे लेकर वहां से चली गयीं। सम्पूर्ण प्रकरण में वहाँ की संवादहीनता बनी रही किन्तु उस शांति ने भी कई विचारों के आदान प्रदान कर लिए जिनमें इस खेल के समापन की मूक घोषणा भी थी। कुछ क्षण पश्चात् जब लड़के शून्य से बाहर आए तब अमन की दृष्टि अनायास ही उस पुस्तक पर पड़ी जिसकी पिन उसने निकाली थीं, वो पुस्तक नैतिक शिक्षा की थी। आज बिना पुस्तक खोले ही उसने जीवन की नैतिकता के एक अमूल्य पाठ को पढ़ा था।
समाप्त!!

4 comments

अंकित निगम जी आपने बहुत ही सारगर्भित लेख लिखा है, जिसके लिए मैं आपको बधाई देता हूँ। और उम्मीद करता हूँ भविष्य में भी आप ऐसे ही नैतिकता एवं ज्ञान वर्धक लेख लिखते रहेंगे।

Reply

धन्यवाद नीलेश जी, आशा करता हूँ कि आगे भी आपकी उम्मीदों पर खरा उतरुं।

Reply

Good going,let me know how to start up with an story on this portal.

Reply

Mail us ur story at comicsourpassion@gmail.com
If our Team likes ur story, It will be published

Reply