Thursday 14 December 2017

COP प्रस्तुत करते हैं

मंथन 

भाग - 1

कथा एवं संपादन - अंकित निगम

कैलीग्राफी - गूगल हिंदी फ़ॉन्ट्स

चित्रांकन एवं रंगसज्जा - मन में करने का प्रयास करें 

नोट-: ( ) के अंदर लिखी गयी बात मन में कही जा रही है

यह पूर्णतः एक काल्पनिक कथा है और इसमें उपयोग की गई धार्मिक कथा को कहानी को प्रभावी बनाने के हिसाब से लिखा गया है ना कि किसी पुराण के हिसाब से, यदि उसे पढ़कर किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचती है तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ।

          "अमृत" जीव को मृत्यु से बचाने वाले एक द्रव से कहीं अधिक है। यह प्रकृति द्वारा प्रदत्त अमूल्य वरदान है, किन्तु हर वरदान की एक आयु होती है जिसके बाद वो अनायास ही अभिशाप में परिवर्तित हो जाता है, अमृत भी इस परिवर्तन से अछूता नहीं है। यह एक प्रतीक है जीव की महत्वकांक्षा का, उसकी स्वार्थी प्रकृति का जो उसे बड़े से बड़े अहित की ओर अग्रसर कर देती है। अमृत के प्रति ऐसी स्वार्थपूर्ण लालसा सदियों से है, इसके अस्तित्व में आने से भी पहले से। ऐसी तीव्र लालसा जिसने देवों तक को अपने आगे घुटने टेकने को विवश कर दिया था, इतना विवश कि अमृत की चाह में उन्होंने अपने परम शत्रु यानी असुरों तक से संधि करना उचित समझा। ऐसी संधि जिसका उद्देश्य था सागर के अनंत गर्भ से शक्ति के उस अपार स्रोत को बाहर निकालना जिसमें क्षमता थी जीव को अमरता प्रदान करने की। महत्वकांक्षाओं, स्वार्थ और लालच का ऐसा जाल बुना गया जिसका परिणाम निकला

 मंथन 

अथाह जल राशि को मथने की कष्टदायी प्रकिया प्रारम्भ हुई औऱ एक एक करके विभिन्न पदार्थों का उद्भव होने लगा....

धप्प

"क्या हुआ नागराज, किताबों से इतनी बेरुखी क्यों .... और इतनी पुरानी किताबें, ये कहाँ से ले आये तुम।"

कमरे के द्वार पर हाथों में चाय के दो भरे हुए कप लिए भारती ने कुछ शरारती अंदाज़ में कहा। कमरा... फिलहाल तो उसे आप छोटी मोटी लाइब्रेरी समझ सकते हैं जिसमें चारों तरफ अलग अलग किताबें फैली हुई थीं, अत्यंत प्राचीन किताबें। किताबों के बीच से सम्भल सम्भल कर आगे बढ़ती हुई भारती ऐसे चल रही थी जैसे भारी बारिश के बाद कच्ची सड़क पर बने कीचड़ में ठोस जमीन ढूंढ ढूंढ के कदम बढ़ाए जाते हैं।

"ओह तुम हो!" नागराज ने एक ज़ोर की सांस लेते हुए कहा

"हाँ तो! किसी और को होना था क्या?"

"अरे नहीं यार।"

"वैसे तुम्हे इस हाल में देख कर कुछ पूँछने का मन कर रहा है। पूंछू?" भारती ने शरारती अंदाज़ में कहा

"मना करूँगा तो कौन सा बिना पूँछे चली जाओगी, पूंछो।” नागराज ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा

"किताबें बहुत सी पढ़ी होंगी तुमने,
मगर कोई चेहरा क्या तुमने पढ़ा है...."
भारती की सुरीली आवाज ने माहौल को थोड़ा शरारती बना दिया

"पढ़ा है मेरी जाँ नज़र से पढ़ा है..."
नागराज ने भी गुनगुना के जवाब दिया और भारती की आँखें आश्चर्य से बड़ी हो गईं

"विश्वरक्षक नागराज को गाने भी आते हैं।"

"क्योँ ? जब कृष और फ्लाइंग जट गाने गा सकते हैं तो नागराज में क्या कमी है।"
इसबार नागराज के चेहरे पर शरारत भरी मुस्कान थी

"हाँ हाँ क्यों नहीं... पर क्या तुम मुझे बताओगे की किस एग्जाम की तैयारी की जा रही है? "
भारती ने जानबूझकर टॉपिक बदल दिया क्योंकि उसे भी पता था कि इसके आगे वो शायद खुद को संभाल ना पाये।

"कुछ सवाल हैं जिनके जवाब तलाश रहा हूँ। चलो दादाजी के पास चलते हैं।"
नागराज ने अपनी चाय खत्म करी और कप को मेज पर रखते हुए कहा।

वेदाचार्य के कमरे में

"आओ नागराज कुछ परेशान दिख रहे हो।"
वेदाचार्य , जो कुछ तिलस्मी यंत्रों में उलझे थे, ने नागराज के आने की आहट सुनकर कहा।

"अमृतमणि के कारण" नागराज ने कहा

"अमृतमणि, ये कौन सी मणि है? मैने लाखों मणियों के बारे में सुना पढ़ा है पर ये नाम तो मैं पहली बार सुन रहा हूँ।"
वेदाचार्य ने चौंकते हुए कहा।

"मैनें भी पहली बार इसे मिसकिलर से लड़ाई के वक्त देखा था★ (नागराज उस घटनाक्रम को विस्तार से सुनाता गया) अब मैं ये जानना चाहता हूँ कि ऐसा क्या है उस मणि में जिसकी वजह से वो इतनी शक्तिशाली है और मैं पहली बार मे ही उसे कैसे पहचान गया जबकि मैंने उसे पहले कभी ना देखा था ना सुना था।"

★उक्त विषय मे जानने के लिये पढ़ें मेरी पूर्व फैन मेड स्टोरी "षडयंत्र" (www. comicsourpassion.com पर उपलब्ध)

"इतना ही नहीं, पिछले कुछ दिनों से मैं नागदीप और अन्य प्राचीन नाग सभ्यताओं की अतिप्राचीन पांडुलिपियों का अध्ययन कर रहा हूँ पर किसी में भी अमृतमणि का कोई जिक्र नहीं है। ऐसा लगता है मानों इसकी जानकारी हर जगह से मिटा दी गई हो।"

"या फिर ये जानकारी पृथ्वी तक आयी ही ना हो।"  भारती ने नागराज की बात को आगे बढ़ाते हुए कहा

"नहीं ऐसा सम्भव तो नहीं लगता क्योंकि शक्ति और धनंजय ने बताया था कि पृथ्वी पर इसकी शक्तियों को सीमित किया गया था, यानी कुछ तो कारण रहा होगा ऐसा करने का। और तो और ये मिसकिलर को स्वर्णनगरी में ही प्राप्त हुई होगी इसलिए तुम जो कह रही हो वैसा होना असंभव है।"
नागराज ने भारती की बात काट दी।

“अगर ऐसा है तो इसके विषय मे तुम धनंजय से ही क्यों नहीं पूँछ लेते।”

"अवश्य पूँछ लेता दादा जी अगर वो स्वर्णनगरी में होता। उस घटना के बाद से वो ना जाने कहाँ गायब है।"


धनंजय की तलाश सिर्फ नागराज को ही नहीं थी.....

***

स्वर्णनगरी में

"ऐसा कैसे हो सकता है कि धनंजय बिना बताए इतने समय तक स्वर्णनगरी से गायब रहे।"

"वो राजा हैं यहाँ के और वो जैसा चाहें वैसा कर सकते हैं।"

"ह्म्म्म"

ये वार्तालाप ध्रुव और स्वर्णनगरी के महागुरु के बीच चल रहा था।

"पर तुम्हे धनंजय से इतना भी क्या ज़रूरी काम है जो तुम पिछले दो माह में यहां के दस चक्कर काट चुके हो?"

"अमृतमणि.... मुझे उससे अमृतमणि के बारे में जानना है, साथ ही ये भी की मैं उससे कैसे जुड़ा हूँ।"

"अमृतमणि... वो क्या चीज़ है।" (*)
महामंत्री ने आश्चर्य से पूँछा

(*) मिसकिलर के षड्यंत्र के दौरान समस्त स्वर्णनगरी वासी उसके कंट्रोल में थे इसलिए वो उस समय घटे घटनाक्रम से अनजान थे।

"मुझे उम्मीद थी कि यहाँ धनजंय के अलावा शायद ही कोई इस विषय मे जानता हो। पर अब समस्या ये है कि मुझे मेरे जवाब कहाँ मिलेंगे।"
ध्रुव जैसे खुद से ही बात करनी शुरू कर दी। महामंत्री ने उसकी तन्द्रा तोड़ी।

"पर जो भी विपदा आई थी अब समाप्त हो चुकी है, फिर अब इतनी चिन्ता क्यों?"

"चिंता है क्योंकि एक छुपी हुई शक्ति उजागर हो चुकी है, आज नहीं तो कल वो फिर सामने आएगी और इसबार उसे इस्तेमाल करने वाला शायद उसकी शक्तियों से पूर्णतः परिचित भी हो सकता है... हमें तैयारी तो रखनी ही होगी।" ध्रुव ने अपने शब्दों को तीक्ष्ण करते हुए कहा

"पर कौन परिचित होगा उस शक्ति से जिससे हम देव भी अनिभिज्ञ हैं, तुम व्यर्थ में चिंतित हो।" महामंत्री ने ध्रुव को शान्त करते हुए कहा

(होंगे... अवश्य होंगे... अगर मैं और नागराज हैं तो हमारे जैसे और भी होंगे) मन ही मन विचारते हुए ध्रुव वहाँ से निकलने ही वाला था कि अचानक उसे कुछ याद आया और वो वापस मुड़ गया

ध्रुव का दिमाग जिन विचारों में डूबा था....

*****

स्थान - महानगर

..... नागराज भी कुछ वैसा ही सोंच रहा था।

" तुमने कहा कि शक्ति को भी इसकी जानकारी है, तो तुम उसी से ....."
भारती अपनी बात खत्म करती उससे पहले ही नागराज बोल पड़ा।

"देवी का अंश होने के कारण उसकी अपनी सीमायें हैं, उसने पहले ही इस विषय मे और बताने में अपनी असमर्थता बता दी थी।"

"पर तुम इसे लेकर इतने परेशान क्यों हो, अमृतमणि तो वापस स्वर्णनगरी तक पहुंचाई जा चुकी है ना।"

"वो तो है भारती, पर वो अब संसार के सामने आ चुकी है और कई लोगों को उसकी शक्ति का अंदाज़ा हो चुका है, वो उसे फिर हासिल करने की कोशिश जरूर करेंगे और जिस शक्ति की भयावहता के कारण देवों ने उसे छुपाकर रखा वो अगर दोबारा सामने आई तो शायद उससे बच पाना सम्भव ना हो, कम से कम उसके बारे में जाने बिना तो बिल्कुल नहीं.... और मैं ख़ुद से उसके जुड़ाव की हकीकत भी जानना चाहता हूँ।"
बाहर की सड़क का नज़ारा दिखाती खिड़की से बाहर आकाश को देखते हुए नागराज ने अपनी बात खत्म की।

"तो अब क्या करोगे?" भारती ने सवाल किया

"पता नहीं।" और एक रूखे से जवाब के साथ नागराज खिड़की से बाहर निकल गया।

****

स्थान - अज्ञात

नागराज और ध्रुव की चिंता बेबुनियाद नहीं थी... कोई था जो जानता था कि अमृतमणि क्या है और कितनी शक्तिशाली है।

एक खौफनाक स्थान पर दो शख़्स जिनके चेहरे उस स्थान के अंधेरे में ढके हुए हैं ....

"इतना बड़ा छल किया गया हमारे साथ, अमृतमणि और उसकी समस्त विभाजित शक्तियाँ यहीं पृथ्वी पर थीं और हमे भान भी ना हुआ, हम मूर्ख इतने युगों से उन्हें समस्त आकाशगंगा में तलाशते रहे, सिर्फ एक स्थान छोड़ा, पृथ्वी, और वो सभी मणियाँ यहीं पर रहीं, पर कैसे.... उनसे ऐसे छल की उम्मीद तो ना थी हमें।"

दूसरा शख़्स कुछ संयत लहजे में बोला

"वो छल नहीं कर सकते, उनके हर कृत्य के पीछे कोई कारण होता है, और भूलो मत कि एक वही हैं जिन्होंने हमेशा हमारा पक्ष लिया है और हमारे लिए भी देवों के साथ बराबरी की बात करी है।"

दूसरे शख्स की बात से पहला कितना सहमत था कितना नहीं यह तो पता नहीं चल पा रहा था क्योंकि अंधेरे के आवरण ने उनकी भावभंगिमा भी छुपा रखी थी,पर उनके वक्तव्य श्रव्य थे। पहले शख़्स ने तनिक विलंभ के बाद कहा, "जो भी था, बीत गया, पर अब जो आएगा वो कल्पना से परे होगा.... अमृत अपने आवरण से बाहर आ गया है अब एक बार फिर उसके स्थायित्व का संघर्ष प्रारम्भ होगा, फिर टकराएंगे अमृत और विष, फिर बहेगा खून और समाप्त होगा देवों का देवत्व। और इस बार इस युद्ध का संचालक बनूँगा मैं। हा हा हा..."

अंधकार में भले उनके चेहरे ना प्रकट हुए हों पर उनकी बातों से ये प्रकट हो गया था कि उनके इरादे इस अंधकार से भी ज़्यादा कलुषित थे।

****

स्थान - महानगर

नागराज के जाने के बाद भी भारती खिड़की पर ही थी सहसा उसे कुछ ध्यान आया
"अजीब बात है नागराज ने जाने केलिए नागरस्सी का उपयोग किया, उसकी उड़ने की शक्ति को क्या हुआ।"

"क्षीण हो गई है, मैंने उसकी ऊर्जा में परिवर्तन का आभास किया है, वैसे भी यह शक्तियाँ उसे अचानक ही प्राप्त हुई थीं इसलिए उनका अचानक ही विलुप्त हो जाना इतना भी आश्चर्यजनक नहीं है।"

वेदाचार्य ने भारती के शंकित मन मे उपजे सवाल को एक जवाब देने का प्रयास किया किन्तु उसके पास अभी और भी प्रश्न थे

"आखिर ऐसा क्यों है कि उसकी शक्तियों में इस कदर परिवर्तन आते रहते हैं।"

"इस प्रश्न का सबसे बड़ा उत्तर है उसका शरीर, एक ऐसा मानव शरीर जिसमे नाग शक्तियाँ धारण करने की अद्भुत क्षमता है, भिन्न गुण वाली शक्तियों को धारण करने की क्षमता रखने के कारण ही वो अन्य कई प्रकार की शक्तियों को भी आसानी से ग्रहण कर लेता है और ऐसा करके कभी कुछ शक्तियां उसके शरीर का हिस्सा बन जाती हैं तो कुछ शक्तियां एक निश्चित समय काल के बाद लुप्त हो जाती हैं।"
(हालाँकि कि ये अर्ध सत्य है क्योंकि इस बार नागराज की ऊर्जा में जैसी कमी मैंने महसूस की है वैसी पहले कभी नहीं की थी किन्तु यदि भारती को इस बात का पता चलेगा तो वो बिना सोंचे समझे नागराज की सहायता के लिए निकल पड़ेगी और मेरी गणनाएँ संकेत कर रही हैं कि इस बार संकट बहुत ही बड़ा है।)

"हम्म"
भारती कुछ विचारों को लिए कमरे से बाहर निकल गयी और वेदाचार्य नागराज की कुंडली लेकर भविष्य के गर्भ में उतरने का प्रयास करने लगे।

***

स्थान - हिन्द महासागर

अथाह जलराशि के ऊपर हज़ारों सर्पों से बनी हुई सर्प नौका जिसपर उसका एकलौता सवार 'नागराज' विचारों में डूबा था क्योंकि जो प्रश्न भारती के मन मे खलबली मचाये थे वही प्रश्न उसके मष्तिष्क में भी थे।

(उड़ना मेरी स्वाभाविक शक्ति नहीं थी किन्तु उसका इसतरह लुप्त होना भी सामान्य नहीं है, मुझे आभास हो रहा है जैसे मेरी शक्ति में अत्यधिक कमी आई है, पर कैसे?... मेरे लिए मेरा शरीर ही सबसे बड़ी पहेली है, ना जाने क्या क्या होता रहता है, कभी अचानक कोई शक्ति आ जाती है तो कभी चली जाती है.... खैर इसपर बाद में सोचूँगा फ़िलहाल इससे अधिक महत्वपूर्ण है अमृतमणि। नागदीप के ग्रन्थों में तो इसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिली इन्हें वापस करने के बाद कोई और रास्ता तलाश करूँगा।)

 उसने बेहद ही निराशा भरी निगाहों से नौका में पड़ी पुस्तकों को निहारा। किन्तु एक नायक के जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना ये है कि उसे ना तो अधिक समय तक निराश होने का अधिकार है ना ही अधिक समय तक प्रसन्न क्योंकि कर्म का बुलावा उसकी भावनाओं के ज्वार से भी तेज आता है और वो उससे मुख नहीं मोड़ सकता।

विचारोन्मुख नागराज का ध्यान आकर्षित किया उन हृदय विदारक चीखों ने जो कि हिन्द महासागर में डूबते एक विशाल जलपोत के यात्रियों की थीं।

"अरे, अच्छा भला जलपोत अचानक से कैसे डूबने लगा, मुझे यात्रियों को बचाना होगा।"

और फिर सर्प नौका ने अपने चलने की दिशा बदली और मुड़ गयी 500 यात्रियों वाले डूबते जलपोत की तरफ, कुछ ही पलों में सर्प नौका जलपोत के पास थी

"सभी लोग जो पानी मे कूद चुके हैं वो सर्प नौका में आ जाएं और जो अभी जहाज में ही हैं वो इस सर्प सीढ़ी का उपयोग करें।”

नागराज ने चीखकर कहा और कलाइयाँ आगे कर दी जिससे निकलकर सांप एक सीढ़ी के आकार में जहाज से जा लगे.... एक एक कर यात्री नीचे उतरने लगे

"पर इस सर्प नौका में तो मात्र कुछ ही लोगों के लिए स्थान है।" सर्प नौका में चढ़े एक यात्री ने कहा तो नागराज ने कहा
"क्या सच में"

और फिर उसकी कलाइयों से लाखों नाग निकलकर नौका का आकार बढ़ाने लगे और देखते ही देखते उसका आकार जलयान से भी बड़ा हो गया।

पर इस अफरा तफरी में किसी ने ध्यान नहीं दिया कि बड़ी ही चालाकी से उस शख़्स ने एक छोटी सी डिवाइस नागराज की बेल्ट में चिपका दी... और इस बात से अनजान नागराज किसी और ही चिंता में खोया था

(मुझे अचानक से कमजोरी का अनुभव हो रहा है..... शायद इतनी संख्या में नागों के निकल जाने के कारण, खैर कुछ ही देर में नागों की संख्या सामान्य हो जाएगी।#)

# नागराज के शरीर मे सूक्ष्म सर्प एक निर्धारित संख्या से कम होने पर द्विगुणित होने लगते हैं ।

कुछ ही देर में सभी यात्री और क्रू मेम्बर सर्प नौका के सवार बन चुके थे।

"आखिर ये जलयान डूबा कैसे?"
एक यात्री ने कप्तान के पास जाकर पूँछा

"पता नहीं सर, जहाज में कोई खराबी नहीं थी, ये अचानक ही पिछले हिस्से की तरफ से डूबने लगा और हम लाख कोशिशों के बाद भी इसे काबू में ना कर सके, वो तो भला हो नागराज का जो उसने सबकी जान बचा ली।"
कप्तान अभी ठीक से अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि एक भारी स्वर ने सबका ध्यान आकर्षित किया

"""जलयान मैंने ध्वस्त किया है.... और भले ही नागराज ने तुम सबके प्राण बचा लिए हों पर अधिक समय तक तुम्हारे प्राण बचे नही रहेंगे।"""

सभी ने आवाज़ की दिशा में देखा तो पाया कि वह एक सर्पमुख दानावाकृति थी जो देखने मे ही अत्यंत डरावनी थी और पीठ पर लगे दो मशीनी पंखों की सहायता से हवा में स्थिर खड़ी थी ।

"आपका परिचय महानुभाव.... "
नागराज ने बड़े ही संयम से पूँछा

"""मृत्यु का परिचय जानने की इतनी भी क्या जल्दी है, वैसे मुझे सर्पासुर कहते हैं।"""

"अब नाम नहीं पता होगा तो भारती न्यूज़ वाले रात में क्या बताएंगे कि कौन मारा गया, खैर अब नाम बता दिया है तो अपने बिना निमंत्रण आगमन का प्रयोजन भी बता दें तो बड़ी कृपा होगी श्रीमान सर्पासुर.... साथ ही ये भी कि आप इन सबको मरना क्यों चाहते हैं।"

नागराज अभी भी शांत ही था और उसकी ये शांति सभी यात्रियों को अशांत किये थी

"""वो तेरी समझ से परे है... तू बस ये सोंच की इन सबके साथ ही तेरा अंत भी निकट है।"""
इतना कहकर सर्पासुर ने अपने सर्पमुख से भीषण विष फुंकार छोड़ दी

 (इतनी देर में मेरे शरीर मे सर्पों की संख्या सामान्य हो जानी चाहिए थी, पर ऐसा हुआ नहीं है.... कमजोरी बरकरार है... यानी इससे इतनी फ़िज़ूल बकवास करना बेकार रहा) "तू अकेले नागराज को शायद एक बार मार भी लेता पर जब तक इन लोगों की जान खतरे में है स्वयं यमराज भी मुझे नहीं मार सकेंगे" (यदि मैने इसकी विष फुंकार का उत्तर अपनी विष फुंकार से दिया तो वातावरण में फैला विष इन लोगों के लिए घातक होगा, मुझे इसके विष को पीना होगा।)
नागराज ने एक लंबी सांस से सर्पासुर की सम्पूर्ण विष फुंकार अपने फेफड़ों में भर ली

""" अत्यंत ही मूर्खतापूर्ण वार था मेरा, विष तो तेरे लिए सोमरस के समान ही है... किन्तु सर्पासुर मात्र विष ही नहीं उगलता, अग्नि भी उगलता है... अब इसे पीकर दिखा नागराज"""

(अग्नि... शीतनाग होता तो इसकी आग इसके अंदर ही ठंडी कर देता पर उसे तो मैं नागू के साथ महानगर में छोड़कर आया हूँ, अब.... अरे इस अथाह जलराशि के बीच मैं ख़ामख़ा आग से डर रहा हूँ)

सर्पासुर ने किसी ड्रैगन की तरह मुह से आग उगली और नागराज ने डूबे हुए जहाज में लगी सर्पसीढ़ी के नागों को संकेत किया, बिना कोई क्षण गंवाए नागों ने एक छोर से जहाज के पानी से बाहर निकले हिस्से को लपेट लिया और दूसरे छोर को नागराज ने पूरी क्षमता के साथ खींच दिया जिससे जहाज तेजी से पलट गया और उसका पानी मे डूबा हिस्सा बाहर और बाहर वाला हिस्सा पानी मे चला गया, इस प्रक्रिया के दौरान समुद्र का जल हवा में इस प्रकार उछला कि वो आग और यात्रियों के बीच  आगया।

एक आवाज़ के साथ आग के संपर्क में आया पानी भाप में तब्दील हो गया और कुछ पलों केलिए सर्पासुर एवं यात्री एक दूसरे की दृष्टि से ओझल हो गए। जब भाप हटी तो सर्प नौका वहाँ नहीं थी.... था तो बस जहाज के सिरे पर खड़ा नागराज... सर्पासुर ने नज़रें घुमाई तो उसे तीव्र गति से दूर जाती हुई सर्प नौका दिखाई पड़ी।

"समुद्री जल सर्पों की तैरने की गति बहुत तीव्र होती है... नौका के तल में तैरते जलसर्प इसे जल्द ही तट पर पहुंचा देंगे।"
दूर जाते यात्रियों की तरफ देखते सर्पासुर की तन्द्रा नागराज की आवाज़ ने तोड़ी

""" तुम अगर ये सोंचते हो कि मैं उसे पकड़ नहीं सकता तो ये तुम्हारी भूल है नागराज।"""

"बिल्कुल पकड़ सकते हो, पर तुम अगर ये सोंचते हो कि मेरे रहते तुम उसकी तरफ बढ़ भी पाओगे... तो ये तुम्हारी भूल है"
(हालांकि मैं कब तक इसे रोक पाऊँगा ये मैं खुद भी नहीं जानता, क्योंकि सूक्ष्म सर्पों की कमी से आई कमजोरी के बाद विशाल जहाज को इस गति से पलटाने में ही मेरी हालत खराब हो गई है, और तो और मैंने सौडांगी को भी यात्रियों की सुरक्षा केलिए उनके साथ भेज दिया)

यात्रियों का तट पर सकुशल पहुंचना तो लगभग तय था, पर नागराज का.....

इधर सागर तल पर कमजोरी का अनुभव करता नागराज एक शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी के सम्मुख खड़ा था तो वहां से काफी दूर सागर की असीम गहराई की शांति में भी हलचल मचने वाली थी।

***

समय - सतयुग

"उपाय मात्र एक है, अमृत"
ब्रम्हा ने अपने समक्ष विनती की मुद्रा में नतमस्तक खड़े देवों को बताया

"अमृत... वो क्या है?"
सभी देवताओं ने हतप्रभ होकर पूँछा

"इस संसार की सबसे अमूल्य वस्तु, जो किसी को भी मृत्यु रूपी अटल सत्य से आजीवन के लिये मुक्त कर सकती है।"
ब्रह्मा की वाणी में स्पष्टता थी

"और हमारी शक्तिहीनता।" देवों ने अगला प्रश्न किया

 "वो सदा केलिए समाप्त हो जाएगी, फिर ना तो मृत्यु का भय होगा और ना ही असुर आप सबको परास्त कर पाएंगे।"

"किन्तु यह अमृत प्राप्त कहाँ होगा पूज्य।"

"सागर में, क्षीर सागर में।"

"क्षीर सागर में" सभी चौंके

"किन्तु उस सागर के तो हर भाग से हम परिचित हैं पूज्य, हमने तो कभी अमृत जैसी कोई वस्तु नहीं देखी।"
इंद्र ने अपने मष्तिष्क पर जोर देते हुए कहा

"उसमें ऐसी कई वस्तुएं हैं देवेंद्र जो अभी तक किसी ने नहीं देखीं, उन्हें प्राप्त करने के लिए मन्थन करना होगा, समुद्र मन्थन।"
ब्रम्हा ने उत्तर दिया

"पर कैसे होगा ये मन्थन।" इंद्र ने फिर प्रश्न किया

"ये तो मात्र नारायण ही बता सकते हैं, आप सभी को उन्हीं के पास जाना चाहिए।"

"जैसी आज्ञा पूज्य।"
सभी देव ब्रम्हा को प्रणाम करके वहाँ से वैकुण्ठ केलिए प्रस्थान कर गए और कुछ क्षण पश्चात

"मन्थन की प्रक्रिया सरल नहीं है देवराज, इसके लिए आपको एक अत्यंत ही विशाल मथानी चाहिए होगी,उस विशाल मथानी को घुमाने हेतु उसके ही अनुपात में विशाल रस्सा और सबसे महत्वपूर्ण... असुरों का समर्थन चाहिए होगा।"

श्री हरि के वचनों से व्याकुल हुए देव एक साथ बोल उठे

"असुरो का समर्थन... ये आप क्या कह रहे हैं नारायण... उन्ही से तो स्वर्ग पुनः प्राप्त करने हेतु हमें अमृत की आवश्यकता है और आप उन्ही का समर्थन प्राप्त करने को कह रहे हैं।"

"हाँ, क्योंकि विपरीत शक्तियों के सामुहिक प्रयोग से ही मन्थन सम्भव है... सागर के रत्नों को प्राप्त करने का यही एकमात्र उपाय है।"

"जैसी आज्ञा नारायण।" सभी देव वहाँ से चले गए और उनके जाने के तुरंत बाद

"आपको लगता है कि यह उचित है नारायण।"

"महादेव!... आप मंथन की बात कर रहे हैं।"

"हाँ नारायण, क्योंकि आप भी इससे अवगत हैं कि मंथन से मात्र अमृत नहीं और भी बहुत कुछ प्राप्त होगा।"

"किन्तु महादेव, उनमे अधिकांश वस्तुएं जीव केलिए आवश्यक हैं।"

"और प्रथम वस्तु..."

नारायण शांत रहे और शिव ने बोलना जारी रखा

"प्रथम वस्तु सभी के लिए अनावश्यक है, कौन स्वीकारेगा उसे, आप भी जानते हैं कि उसके प्रभाव कितने विनाशकारी हैं..."

"यदि मंथन आपसी सहयोग से होगा तो उससे प्राप्त वस्तुओं में भी एक सामंजस्य किया जाएगा, और जिसे भी अमृत लेना है उसे विष तो साधना ही होगा, आप चिंतित ना हों महादेव।"

"चिंतित कैसे ना हों नारायण, विष मृत्यु का पर्याय है तो अमृत लोभ का वो चरम है जिसके प्रभाव घातक हो सकते हैं... इसी कारणवश सृष्टि के प्रारंभ में ही इन वस्तुओं को सागर के गर्भ में छिपा दिया गया था। यह उचित नहीं हो रहा नारायण।"

"आप सर्वथा सत्य कह रहे हैं महादेव, किन्तु कभी कभी परिस्थितियां उचित अनुचित से परे हो जाती हैं, यह भी वैसी ही परिस्थिति है और देवों के पुनः स्वर्ग प्राप्ति हेतु अमृत अत्यंत आवश्यक।"

"किन्तु आपको यह क्यों लगता है कि स्वर्ग के अधिकारी मात्र देव ही हो सकते हैं, असुरों ने उन्हें युद्ध मे परास्त करके स्वर्ग पर अधिकार किया है औऱ युद्ध के पश्चात उन्होंने ऐसी कोई चेष्टा नहीं की है जिससे उनके स्वर्गाधिपति होने पर कोई प्रश्न किया जाए।"

"किन्तु उनके स्वभाव के आधार पर यह भी स्पष्ट है कि ऐसा अधिक समय तक नहीं रहेगा।"

"आवश्यक नहीं कि पूर्वानुमान सही ही हों नारायण, और असुर जैसे भी हों वो शक्ति प्राप्ति हेतु तप का कठिन मार्ग चुनते हैं, देवों के समान अनुनय का नहीं।"

"उचित है, परन्तु देव स्वर्ग हेतु ब्रम्ह देव का चयन हैं और उनके चयन की रक्षा करना मेरा दायित्व।"

"यदि कोई चलने के स्थान पर लड़खड़ा कर गिर जाए तो उसे उठने केलिए प्रोत्साहित किया जाना अधिक आवश्यक है नाकि उसे कोई सहारे की छड़ी प्रदान करना, और वो भी ये जानते हुए कि ऐसा करना उसकी नियति नहीं, प्रवृत्ति है .... ऐसे उदाहरण भविष्य पर विपरीत प्रभाव डालेंगे।"

इतना कहकर शिव वैकुण्ठ से प्रस्थान कर गए।

          देवों ने असुरों को भी अमृत के लोभ में लेकर मंथन केलिए मना लिया था, नारायण के सुझाव पर मंदार पर्वत को मथानी और शिव के कण्ठ नाग वासुकी को रस्सी बनाया गया, पर्वत नीचे ना चला जाये इसलिए स्वयं नारायण कछुए के रूप में समुद्र में उतरे और उनकी पीठ पर पर्वत टिकाया गया। सभी देव, असुर, ऋषि मुनि वहाँ उपस्थित थे, सिवाय शिव के, उनका अभी भी मानना था कि यह सही नहीं है। उचित समय पर मन्थन प्रारम्भ हुआ, सुर-असुर के संतुलित बल से मथानी चलने लगी और अत्यधिक श्रम एवं समय बीत जाने के पश्चात आखिरकार सागर में हलचल होने लगी जो धीरे धीरे विकराल रूप लेने लगी और फिर जो वस्तु बाहर आई वो था ‘हलाहल’ अत्यंत ही घातक विष, जिसके ताप से ही वहाँ कोहराम मच गया, अफरातफरी फैल गयी, उससे उठते धुएँ के प्रभाव में आने वाले कि तो अस्थियाँ तक पिघल गयी, देव दानव सब त्राहिमाम कर उठे। चारों दिशाओं में मात्र एक ही स्वर था

रक्षा स्वामी.... रक्षा....

रक्षा स्वामी.... रक्षा....

फिर.... सारा दृश्य स्थिर हो गया, क्या देव, क्या असुर जो जहां था, जिस स्थिति में था, वैसे ही जड़वत हो गया, मानों समय ही रोक दिया गया हो किन्तु चीत्कार के स्वर यथावत आते रहे बस अब ये स्वर जरा दूर से आते प्रतीत हो रहे थे।

रक्षा स्वामी.... रक्षा...

"यह स्वर कैसा, जरूर बाहर कोई बड़ा संकट आया है।"

इतना कहकर ध्रुव ने अपने हाथ में थमी हुई एक टॉर्च जैसी ट्यूब के ऊपर लगे बटन को दबाया और सम्पूर्ण दृश्य उसी में समा गया।

ध्रुव कक्ष से बाहर आया तो देखा हर तरफ अफरा तफरी मची थी। स्वर्ण मानव अपने शस्त्र लिए ऐसे सज्ज थे मानो किसी युद्ध केलिए तैयार हों। ध्रुव ने एक से पूँछा

"क्या हो रहा है यहाँ?"

सैनिक कोई उत्तर देता इससे पहले पानी की एक तीव्र धारा ने सबको अपने साथ बहा लिया और कमरे की दीवार पर ला पटका... जल धारा की गति इतनी अधिक थी कि टकराव के कारण कई सैनिक मूर्छित हो गए... ध्रुव भी सिर्फ इसलिए बच सका क्योंकि टकराने से ऐन वक्त पहले उसने अपने शरीर को एक खास कोण पर मोड़कर अपने सिर को बचा लिया।
 
जो होश में थे वो जब खड़े हुए तो ध्रुव ने स्वर्ण सेनापति प्रखर से पूँछा
"अगर पानी को अंदर आने से रोकने की व्यवस्था में कोई खराबी आयी है तो उसे ठीक करिये, ये अस्त्र शस्त्र लेकर खड़े होने से क्या होगा।"

"ये जल प्रवाह समुद्री जल का नहीं.... इसके द्वारा पैदा किया गया है जो ना जाने कैसे अंदर आ गया।"

प्रखर के उत्तर के बाद ध्रुव ने सामने देखा.... एक विशालकाय प्राणी जो चेहरे से थोड़ा भयावह कहा जा सकता है, खड़ा था

"तुम कौन हो भाई?... और अंदर कैसे आये?"
(क्या ये सच मे इतना खतरनाक है कि इससे निपटने में आप सब विफल रहे।)
ध्रुव ने उस व्यक्ति से प्रश्न किया और धीरे से प्रखर से अपनी बात कही

"ज्वारासुर नाम है मेरा, मैं जल शक्ति धारक असुर हूँ और हवा एवं पानी को कोई सुरक्षा नहीं रोक सकती, रही बात मेरी शक्ति की तो वो तुम्हे कुछ समय मे दिख ही जाएगी।"

ज्वारासुर की बात खत्म होते ही प्रखर बोल उठा

"यह शक्ति में वरुण देव के समकक्ष है, इसे मात दे पाना तो धनंजय केलिए भी दुष्कर है हम भला कैसे.... "

प्रखर की बात पूरी होती उससे पहले ही ज्वारासुर ने अपना अगला वार कर दिया... उस पर हमला करने आये और स्वर्ण मानवों को उसने बर्फ में जमा दिया।

"उफ्फ्फ... सभी अग्नि शक्ति का प्रयोग करें"
प्रखर चिल्लाया.... सभी ने एक साथ अग्नि शक्ति का प्रयोग किया और स्वर्ण मानवों पर जमी बर्फ़ कैद पिघल गयी

"आप लोग इस अग्नि शक्ति की तीव्रता को बढ़ा सकते हैं क्या?"

"हाँ क्यों नहीं।"

ध्रुव के सवाल का प्रखर ने जवाब दिया

"मैनें देखा था कि जब ये वार करता है तो इसका शरीर जल में बदल जाता है, अगली बार ये जैसे ही वार करे आप सभी इसके शरीर पर अग्नि शक्ति से वार करियेगा और ये..."

".... जल वाष्प में बदल जायेगा.... कमाल है इतनी साधारण बात हमारे दिमाग में क्यों नहीं आई।"

"आपने काढ़ा नहीं पिया है ना इसलिए।"

"मतलब?"

"अरे कुछ नहीं... आप इसपर ध्यान केंद्रित कीजिये।"

अगला वार करने के लिए ज्वारासुर ने जैसे ही जल रूप लिया सभी स्वर्ण मानवों ने अग्नि शक्ति का वार किया और ज्वारासुर का शरीर वाष्प में बदल गया.... किन्तु स्वर्ण मानव अभी ठीक से खुश भी नहीं हुए थे कि ज्वारासुर के वाष्पकण एकत्र होकर पुनः शरीर बन गए। सभी स्वर्ण मानव जड़वत...

"हमें पता था कि तुम इस समय यहाँ हो ध्रुव इसलिए मुझे भेजा गया है क्योंकि मेरी शक्ति कई स्वरूपों में रह सकती है, जैसे वाष्प भी जल का ही एक रूप है और मैं जल के हर रूप से अपना शरीर पा सकता हूँ।"

"मेरी प्रसिद्धि सच मे काफी बढ़ गयी है, असुरों तक मे.... (थैंक्स टू हकीम जी)।"

" जिसने असुरराज शंभूक और गुरु शुक्राचार्य तक की योजना विफल की हो उसे साधारण समझने की भूल हम दोबारा नहीं कर सकते (*)... अब बहुत हुई बातचीत, मै अब वो करूँगा जिसके लिए मैं आया हूँ, रोक सकते हो तो रोक लो।"

(*) इस विषय मे जानने केलिए पढ़ें - कलियुग


इतना कहकर ज्वारासुर का शरीर ज्वार की लहरों की तरह उन्मुक्त होकर पूरी स्वर्णनगरी में फैलने लगा और लोग उसमे डूबकर बहने लगे। यूँ तो उन्हें जल में डूबकर मरने का तो कोई खतरा नहीं था किन्तु जल के लगातार बदलते प्रवाह के कारण सभी खुद को संभाल पाने में असमर्थ सिद्ध हो रहे थे, कभी दीवारों से टकराते तो कभी एक दूसरे से, एक एक करके सभी होश की दुनिया को अलविदा कह रहे थे। सब अपनी रक्षा में ही लगे थे इसलिए किसी ने ये ध्यान नहीं दिया कि जल धाराएं प्रत्येक कक्ष में प्रवेश कर रही थीं, मानों कुछ तलाश रही हों।

ध्रुव ने एक किनारे पर स्टार लाइन अटका के खुद को संभाला और किसी तरह से प्रखर के पास तक पहुंचा जिसने छत का एक हिस्सा पकड़कर खुद को बहने से रोका हुआ था।

"यह नगरी समुद्र के अंदर बनी है और ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि इसमें कभी जल ना भरता हो, ऐसी स्थिति में आप लोग क्या करते हो।"
ध्रुव ने पूँछा

"निकास यंत्र को चालू कर देते हैं जो एक खिंचाव के साथ समस्त जल को नगर के बाहर फेंक देता है।"

"तो तुरंत ही उसे चालू करो।"
प्रखर के जवाब देते ही ध्रुव बोल पड़ा

"मैं भी कबसे यही करने के बारे में सोंच रहा हूँ किन्तु उस यंत्र को चालू करने वाला लिवर बहाव के विपरीत दिशा में है औऱ इस तेज़ बहाव के विपरीत तैर सकना असम्भव।"

ध्रुव ने देखा लीवर सच मे काफी दूर था, बहाव के विपरीत इतना तैर सकना असम्भव था

"कैसे भी करके इसे बाहर निकालना ही होगा क्योंकि हमें नहीं पता कि ये क्या करने आया है लेकिन जो भी करने आया है वो किसी नए खतरे को जन्म देने वाला ही होगा.... जैसे आप लोग रिमोट कंट्रोल वार करते हो दूर से वैसे ही इसे खींचने की कोशिश करो।"

"वो प्रयास भी कर लिया ध्रुव, लीवर उस सीमा से भी आगे है... थोड़ा दिमाग तो मेरे पास भी है।"

(पर मेरे पास काढ़ा है।)

प्रखर के उत्तर पर ध्रुव ने एक पल उसे देखा फिर स्टार लाइन फेंकी जिसका एक सिरा लीवर पर जा अटका और दूसरा सिरा पानी में ही तैर रहा था

"अब दूरी कम हो गयी, अब प्रयास करो।"

ध्रुव के बोलते ही प्रखर ने दूर संचालित वार की तकनीक का प्रयोग कर स्टार लाइन का दूसरा सिरा पकड़ कर खींच दिया और देखते ही देखते नगर का सारा जल बाहर समुद्र में जा मिला.... जितने लोग होश में थे सबने चैन की सांस ली

"चलो बला टली।"

"अभी नहीं, वो जैसे एक बार अंदर आया था दोबारा भी आ सकता है।"

ध्रुव के इतना कहते ही सब दौड़कर उस कक्ष में पहुंचे जहां बाहर के दृश्य दिखाने वाले यंत्र लगे थे.... उन्होंने देखा कि नगर से बाहर निकला समस्त जल इकट्ठा हो कर पुनः ज्वारासुर में बदल रहा था और उसके अट्टाहास से समुद्र गूंज उठा था।

ध्रुव को एक बार फिर उसे खत्म करने की योजना बनाने लगा।

***

स्थान - जम्बू द्वीप

         एक नदी के तट पर दो युवक आपस मे बातें कर रहे थे। पहनावे को देखकर यह अनुमान लगाना सरल था कि दोनों ही भिन्न कुल से सम्बंधित थे। जहां एक का पहनावा पारंपरिक केश सुलझे हुए गले में स्वर्ण कड़ियाँ और हाथों में कड़े थे, वहीं दूसरा थोड़ा अस्त व्यस्त जटाधारी केश गले में रुद्राक्ष की माला और कानों में कुंडल थे। इतने विपरीत होते हुए भी जिस तरह से वो टहल रहे थे उससे प्रतीत होता था कि वो अवश्य ही मित्र हैं। अचानक ही उन्हें सामने कई साँपों के शव पड़े मिले और कबीलाई दिखने वाले युवक ने झुककर उन्हें उठाना शुरू कर दिया और द्रवित होकर बोलने लगा

"ना जाने इन निरीह प्राणियों के प्राण लेकर क्या सुख मिलता है नगर वासियों को।"

"यह निरीह अवश्य हैं किन्तु इनके दंश से लोग मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं शायद इसी कारणवश इनके प्राण लिए गए हैं।"
दूसरे ने उत्तर देने के लिहाज से कहा

"सर्प यूँ ही किसी को नहीं डसते, जब कोई इनपर आक्रमण करता है तब अपनी रक्षा के लिए यह दंश का प्रयोग करते है। नगरवासी अकारण ही इनकी विनाश पर तुले हुए हैं।"
पहले ने थोड़ा क्रोध से कहा

"अकारण नहीं है, ग्राम के कई निवासियों की मृत्यु इनके दंश से हो चुकी है इसीलिए सब क्रोधित हैं।"
दूसरे ने पुनः सफाई दी

"निरर्थक तथ्य है ये, वन में तो हम सभी हमेशा ही इनके मध्य में रहते हैं किन्तु ये सर्प हमें तो हानि नहीं पहुंचाते, क्योंकि हम व्यर्थ इन्हें हानि नहीं पहुंचाते, किन्तु यह नगर और ग्राम वासी सर्प देखकर ही पागल होने लगते हैं इन्हें मारने केलिए।"
पहले ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा

"प्रजापति का आदेश है सर्पों को मारने का, मैं मानता हूँ कि ये अनुचित हो सकता है, किन्तु सर्पों ने भी कम पीड़ा नहीं दी है हम सबको। और तुम्हारे लोग इन्हें इसलिए नहीं मारते क्योंकि ये तुम्हारे आराध्य के अत्यंत निकट हैं।"
दूसरे युवक ने थोड़ा रोष प्रकट किया।

"निकट तो ये तुम्हारे आराध्य के भी हैं, मत भूलो की शेषनाग भी एक सर्प ही हैं।"

पहले युवक की बात सुनकर दूसरा थोड़ा शांत हो गया फिर थोड़ा रुककर बोला

"पर इन दो सम्प्रदायों के वैचारिक मतभेद को हम अपने मध्य क्यों ला रहे हैं जबकि हमने पूर्व में ही निर्धारित किया था कि हमारी मित्रता इस विरोधाभास से सदैव दूर ही रहेगी कि तुम शैव हो और मैं वैष्णव।"

"अवश्य, किन्तु प्रश्न जीव हत्या का है, मैं इन्हें इस प्रकार मरते नहीं देख सकता।"

"मर तो वो लोग भी रहे हैं जो इनके शिकार हुए हैं। अब कौन सही और कौन गलत इसका चयन कैसे होगा।"

"ज्ञात नहीं...."

इतना कहकर पहला युवक सभी सर्पों के मृत शरीर को धरती में गाड़ने लगा दूसरा उसे देखता रहा, दोनों के मध्य एक अजीब सा निर्वात था।

***

स्थान - नागदीप


" विशांक को आखिर हुआ क्या है?"

"क्षमा चाहेंगे राजकुमारी जी किन्तु इनकी बीमारी का पता लगाने में हम भी पूर्णतः असमर्थ हैं।"
विशांक बीमार था और नागशैया पर आँखें बंद किये अचेत लेटा हुआ था, शैया के एक ओर विसर्पी और दूसरी ओर वैद्य जी थे... वैद्य ने अपनी जांच के बाद जो कहा वो सुनकर विसर्पी की अधीरता बढ़ने लगी

"किन्तु आप समस्त नाग वैद्यों में सर्वश्रेष्ठ हैं और आप ही..."

"मैं जानता हूँ नाग कुमारी... परन्तु नाग कुमार का जबसे जन्म हुआ है तबसे यह पहला अवसर है जब वो अस्वस्थ हुए हैं, और चूँकि इनका जन्म ही भिन्न परिस्थितियों में हुआ था इसलिए इनके शरीर की वास्तविक समस्या को समझ पाना सम्भव नहीं हो पा रहा है.... और जिस गति से इनका स्वास्थ्य गिर रहा है उससे पल प्रतिपल इनके जीवन को खतरा बढ़ता जा रहा है।"
वैद्य अपनी बात स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा था और विसर्पी उसका खंडन

"पर यह मर नहीं सकता.... इसकी कोशिकाओं में तो अमृत उपस्थित है।"

"वो तो रावण की नाभि में भी था कुमारी... शरीर में अमृत की उपस्थिति मात्र ही अमरता का पर्याय नहीं होती... अब इनका बचना मात्र ईश्वर के हाथों में हैं।"

वैद्य चला गया और विसर्पी के नेत्र विशांक को देख स्वतः ही छलक गए।

"मेरा भाई... जो हर शक्ति की काट चुटकियों में ही बना लेता था वो किस शक्ति के सामने बेबस हुआ जा रहा है... कुछ तो पता चले... इतने वर्षों बाद मैं फिर से अपना भाई नहीं खोना चाहती.... उठो विशांक उठो.... विशाSSSSSSSSSSSङ्क"

पहाड़ों तक का सीना चीर सकती थी यह चीख किन्तु जिसे सुननी चाहिए थी उसके कान तो सन्नाटे की चीख में खोए हुए थे.... विशांक जस का तस पड़ा रहा... अचेत।

****


■ क्यों क्षीण होती जा रही हैं नागराज की शक्तियां?

■ कहाँ गायब है धनंजय ?

■ क्या नागराज और ध्रुव हरा पाएंगे अपने प्रतिद्वंद्वियों को ?

■ कौन हैं ये दो युवक ?

■ क्या सच में मरने वाला है विशांक ?

 और सबसे महत्वपूर्ण

■ क्या रहस्य है अमृतमणि का ?

इन सभी रहस्यों का【 आवरण 】हटेगा इस महागाथा के अगले भाग में। इंतज़ार कीजिये।

और अपने महत्वपूर्ण रिव्यू शेयर करना ना भूलें, इससे लेखक को अपनी कमियों के पता चलता है साथ ही आगे और कहानियां लिखने का प्रोत्साहन प्राप्त होता है।

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