खिलौने (लघुकथा )- निशान्त मौर्य
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मेले वाले दिन सुबह 8 बजे ही अच्छे से तैयार होकर अपने छोटे भाई और मित्र - मण्डली को लेकर नैना मेला देखने निकल पड़ी।
मेले में पहुंचते ही सबसे पहले उन लोगों ने जलेबी का जलपान किया। जब इतना अच्छे नाश्ते का अवसर सामने हो तो भला घर की छांछ - रोटी किसे भाती है! अब वक्त था मेला घूमने का। नैना अब तक अपने पूरे दल के साथ मेले के 2 चक्कर लगा चुकी थी। उन्होंने झूला झूला, जादूगर के करतब देखे, विशेष मसालों से बनी बंगाली चाट खाई और ख़ास तौर पर नक्काशी की गयी फिरोजाबादी चूड़ियाँ खरीदीं। बचत के 300 में से 200 रूपये उड़ चुके थे। अब बचे थे मात्र सौ रूपये जो उसे चाभी वाली गुड़िया और छोटे भाई के लिए मोटरकार लेने में खर्चने थे।
खिलौनों के दाम इस बार आसमान छू रहे थे कोई भी दुकानदार उन खिलौनों के 150 से कम लेने को तैयार नही था। आखिरकर वो मेले सबसे कोने में लगी हुई खिलौनों की आखिरी दुकान पर पहुँच गयी जिस पर ना के बराबर भीड़ थी। खिलौनों की सौदेबाजी का खेल फिर से शुरू हो गया। इस बार दाम 120 पर आकर अटक गया। मोलभाव करते करते नैना की नजर वहां से 10 कदम दूर जमीन पर बैठी एक बुढ़िया पर पड़ी जो चिल्ला चिल्ला कर अपने मिट्टी के खिलौने बेचने की कोशिश कर रही थी- हर खिलौना 10 रूपये में.... गुड़िया, मोटरकार, राजकुमार सबकुछ तो था वहां। लेकिन उम्र ज्यादा होने की वजह से बुढ़िया आवाज नही निकल रही थी। जब से प्लास्टिक के खिलौने बाजार में चल पड़े हैं तब से इन मिट्टी के खिलौनों को पूछता भी कौन था। भला कौन एक नाचती हुई गुड़िया की जगह एक बेजान पुतला खरीदना पसन्द करेगा! 11 साल की उस लड़की को उन बूढ़ी आँखों के पीछे छिपी लाचारी साफ़ नजर आ रही थी जो मेले के बड़े बड़े सज्जन भी नही देख पा रहे थे।
" आखिरी दाम 100 रूपये, इससे कम एक पैसा भी ना लूंगा।"
दुकानदार की आवाज से नैना की तन्द्रा टूटी पर उसने मानो सुना ही नही। बिना कुछ बोले उसके कदम आगे बढ़ गए और बुढ़िया की फ़टी हुई चटाई के पास जाकर रुक गए जिस पर उसने अपने सारे खिलौने बिलकुल अच्छे से सजा कर रखे थे। 5 मिनट की बातचीत के बाद नैना का झोला 10 सुंदर खिलौनों से भरा था। सूरज की रोशनी पश्चिम में बढ़ने के साथ मद्धिम हो गयी थी लेकिन बुढ़िया और नैना दोनों के नैना एक समान रूप से चमक रहे थे।
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