Friday 29 December 2017

पागल

विचित्र किस्म का पागल था वह. न तो कभी बड़बड़ाता और न ही पागलों जैसी हरकतें करता. वकिलों-मुवक्किलों से लेकर चाय-पान, नास्ते की दूकानों तक ही सीमित थी किन्तु उसकी दुनिया. हाथ फैलाकर कभी किसी से कुछ नहीं मांगता. किसी ने कुछ दिया, नहीं दिया कोई बात नहीं. हाँ, दूकानों पर काम करने वाले बच्चे उसे अवश्य तंग किया करते. कोई कंकड़ फेंककर मारने का प्रयास करता, तो कोई भद्दी-भद्दी गालियां देकर उसके क्रोध का रसास्वादन करने का. बदले में दो-एक कुल्हड़ चाय उसे अवश्य नसीब होती. वह चिल्लाता. धुनता अपना सर और फिर चाय की चुस्कियों में हंसता हुआ विलीन हो जाता. बच्चों के निष्ठुर व्यवहार की तब वह तनिक भी परवाह नहीं करता. पूरा पागल है, लोग कहते.
वह कौन था, कहाँ से आया था, कितने दिनों से इस शहर में रह रहा था, किसी को कुछ भी पता नहीं.
लम्बी कदकाठी, खूबसूरत चेहरा फिर भी पागल...?
पिछले जन्म में जरुर इसने कोई बड़ी गलती की होगी, तभी तो भुगत रहा बुरा परिणाम......?
चाय की चुस्कियों के बीच आपस में बातें कर रहे दो सज्जन आपस में बातें कर रहे थे. बिल्कुल सच. ऐसा ही हुआ होगा. दूसरे ने पहले का समर्थन करते हुए कहा. अनाम पागल की गुत्थियों को सुलझाने में सभी उलझे हुए थे.
कुछ दिनों के बाद एक दूसरी बात सामने आयी. अपने परिवार के साथ बड़े ही मजे में रह रहा था वह. अच्छी नौकरी थी. पगार भी अच्छा-खासा था. पत्नी-बच्चे से भरा परिवार था. कई वर्षों से इसी शहर में रह रहा था. साल के अंत में टूर पर था. बीबी-बच्चे साथ थे. बस दुर्घटना में अचानक एक दिन बीबी-बच्चे छोड़कर चले गए. इस घटना के बाद ऐसा विक्षिप्त हुआ कि फिर कभी सामान्य नहीं हो सका.
प्रतिदिन कुल्हड़ में चाय पिलाने वाला बच्चा रामदीन पागल से काफी हिल-मिल चुका था. छुपते-छुपाते प्रतिदिन दो-चार बिस्किट उसे खिलाता. पानी पिलाता. लोग मना करते. कौन भरोसा, कब मिजाज फिर जाए, अंततः पागल ही तो है ! लोगों की बातों को सुन रामदीन उसे अनसुना कर देता. कई महीनों तक यह सिलसिला यूँ ही बदस्तूर जारी रहा. चाय पिलाने के बहाने रामदीन ने एक दिन उससे पूछ ही लिया.
विक्षिप्त की तरह आप क्यो फिरते होे....?
पागल ने कोई जबाव नहीं दिया.
दूसरे दिन रामदीन ने उसी सवाल को फिर से दुहराया. दूसरे दिन भी वह चूप ही रहा. दो-चार दिन बीते होंगे, एक दिन दौड़ा-दौड़ा पागल रामदीन को गोद में उठाकर अचानक चूमने लगा. रामदीन हैरान-परेशान था. उसकी इस हरकत से वह काफी सहम गया.
मैं पागल नहीं हूँ, लोग चाहे जो भी सोंचे. तुम्हारी उम्र का ही मेरा बेटा था. बहुत प्यारा. प्रतिदिन उसकी आवाज से मेरे दिन की शुरुआत होती. सिर्फ बेटा ही मेरा दोस्त भी था. मेरे मनोरंजन का खिलौना. बीबी नहीं रही. बच्चे नहीं रहे. मेरी दुनिया ही उजड़ गयी. कोई मकसद नहीं जीने का रह गया. मृत्यु का बाट जोह रहा था. तुम मिल गए, कहता हुआ सैकड़ों चुम्बन बरसाए जा रहा था उसके गाल पर. बचपन में ही माँ-बाप को खो चुके बच्चे से रहा नहीं गया. पापा.....पापा....कहता हुआ पागल के सीने से वह चिपक गया.
शब्द संख्याः 519 अमरेन्द्र सुमन(दुमका, झारखण्ड)

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