Sunday 21 January 2018





【℃OP】 प्रस्तुति

                    【 आवरण 】

कथा एवं संपादन - अंकित निगम
कैलीग्राफी - गूगल हिंदी फ़ॉन्ट्स
चित्रांकन एवं रंगसज्जा - मन में करने का प्रयास करें 😜

नोट-: ( ) के अंदर लिखी गयी बात मन में कही जा रही है

नोट-: यह पूर्णतः एक काल्पनिक कथा है और इसमें उपयोग की गई धार्मिक कथा को कहानी को प्रभावी बनाने के हिसाब से लिखा गया है ना कि किसी पुराण के हिसाब से, यदि उसे पढ़कर किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचती है तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ।

नोट-: पढ़कर अपने महत्वपूर्ण रिव्यू शेयर करना ना भूलें, इससे लेखक को अपनी कमियों के पता चलता है साथ ही आगे और कहानियां लिखने का प्रोत्साहन प्राप्त होता है।

पूर्व सार - पहले भाग मन्थन में पढ़ें
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         प्रकृति का एक नियम है - 'साम्य' अर्थात संतुलन औऱ प्रकृति कभी भी अपने नियमों का उल्लंघन नहीं करती, वह हर क्षण, हर परिस्थिति में अपनी साम्यावस्था यानी Equilibrium बनाए रखती है क्योंकि शायद रचियता ने उसे ऐसा ही बनाया है अथवा एक कारण यह भी संभव है कि इस संतुलन में ही प्रकृति का सर्वशक्तिमान स्वरूप निहित है। कोई भी प्राणी प्रकृति से अधिक शक्तिशाली ना हो जाए इसीलिए प्रकृति ने किसी भी प्राकृतिक शक्ति को अजेय नहीं बनाया और यह संतुलन बना रहे इसलिए प्रकृति ने यह सुनिश्चित किया कि प्रत्येक धन केलिए उसी के समान मात्रा में एक ऋण तथा प्रत्येक सम केलिए एक समान विषम सदैव उपस्थित रहे। अतः यह स्पष्ट है कि प्रकृति के गर्भ में ऐसी कोई भी शक्ति नहीं है जिसकी काट प्रकृति के पास ना उपस्थित हो और यदि ऐसी किसी परम शक्ति को ज्ञात कर लिया गया है जो अविनाशी प्रतीत हो रही है तो यह स्वतः ही समझ लेना चाहिए कि इसी के समान औऱ प्रभाव में विपरीत किसी परम शक्ति पर से उठना बाकी है उसका

                   “आवरण”

ऐसी ही एक परम शक्ति थी अमृत जिसके अविनाशी प्रभाव के प्रलोभन में आकर देव और असुर एक साथ मिलकर सागर को मथने में लग गए थे, किन्तु दोनों ने ही प्रकृति के साम्य सिद्धांत को भुलाने की भयंकर भूल कर दी थी और भूल जितनी भयंकर होती है परिणाम भी उतने ही भयावह होते हैं।

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स्थान - हिन्द महासागर

          नागशक्तियों के क्रमिक ह्रास से जूझता नागराज एक शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी के समक्ष खड़ा था और अपने नायक होने के कर्तव्य को वहन कर रहा था। नायक होने का सबसे बुरा पहलू यह है कि कितनी ही विपरीत परिस्थिति क्यों ना हो आप हार नहीं मान सकते क्योंकि आपकी हार कई जिंदगियों को अंत तक ले जा सकती हैं। जैसे इस समय उसे जलयान के यात्रियों के जीवन केलिए लड़ना था।

""तुम्हारा कथन सत्य है कि तुम्हारे रहते मैं उस सर्प नौका तक नहीं जा सकता किन्तु तुम्हारे बाद... जा सकता हूँ ना। वैसे भी इस अथाह सागर में तुम्हारे पैर टिकाने के एक मात्र स्थान, इस जलयान, के अवशेष को नष्ट करने के बाद तुम्हारी जल समाधि बनना निश्चित है।""
सर्पासुर ने अपनी बात खत्म करने के साथ-साथ अपनी भुजाओं में लगे यंत्र से एक विस्फोटक दाग दिया जिसके धमाके से डूबे हुए जलयान के परखच्चे उड़ गए। नागराज ने कणों में बदलकर खुद को बचाया

(3 पलों के बाद मुझे पाँव टिकाने की कोई जगह तो चाहिए होगी, शरीर मे इतने सर्प हैं नहीं कि दूसरी नाव बना लूँ फिर क्या करूँ... हाँ ये कर सकता हूँ)

प्रकट होते ही नागराज ने सर्परस्सी को अपने प्रतिद्वंद्वी के पैरों पर बाँधा और उसी पर झूल गया।

""ऐसा करके कबतक बचोगे नागराज.. मैं एक ही पल में ये रस्सी तोड़ सकता हूँ।""

"और मैं हर पल एक नई रस्सी बना सकता हूँ (वैसे भी ये खेल सिर्फ कुछ ही देर चलेगा मुझे जल्द ही इसके ये विशाल मशीनी पंख कतरने होंगे.. पर कैसे )"

सर्पासुर कभी विस्फोटक तो कभी अग्नि से रस्सी तोड़ता रहा और नागराज उसके अलग अलग अंगों में रस्सी फंसाकर हवा में ही झूलता रहा और कुछ एक हवाई कलाबाजियों के बाद, जब उसका शरीर सर्पासुर से पर्याप्त दूरी पर था, उसकी कलाइयों पर नज़र आए दो नागफ़नी सर्प जिनसे निकले ध्वंसक सर्पों का लक्ष्य थे सर्पासुर के मशीनी पंख

""प्रयास अच्छा था... किन्तु ये पंख इतने कमज़ोर नहीं हैं जो इन धमाकों से बिखर जाएँ।""

(यानी अब ध्वंसक सर्पों की मारकता भी घटने लगी है, अब इसके पंख अलग करने के लिए शरीरिक शक्ति इस्तेमाल करनी होगी )

सर्पासुर ने अपने मशीनी पंखों की प्रशंसा बस समाप्त ही की थी जब नागराज ने उसके समीप पहुंचकर उसके दोनों पंख पकड़े और अपनी पूरी शक्ति से उसके कूल्हों पर पैर मारे, दोनों शरीरों की विपरीत गति के कारण मशीनी पंख सर्पासुर के शरीर से अलग हो गये और दोनों ही किसी परकटे पंक्षी की भांति पानी में जा गिरे।

"ध्वंसक सर्पों का कार्य तेरे पँखों को तोड़ना नहीं, उन जोड़ों को तोड़ना था जिनकी सहायता से ये तेरे शरीर से बंधे थे... हालांकि वो उन जोड़ों को तोड़ नहीं पाए पर इतना कमजोर कर दिया कि मैं उन्हें तोड़ सकूं... अब मुकाबला बराबरी का है... देखते हैं कि कौन कितने पानी मे है।"

""अव... (गुलब).. श्य""

अब युद्ध समुद्र जल के अंदर था, सर्पासुर के पास अग्नि, विस्फोटक और विष की शक्तियां थीं जिनमें से पहली दो जल में क्षीण और तीसरी नागराज पर बेअसर, इसके अतिरिक्त नागराज के पास जल में लड़ाइयों का अनुभव भी उससे कहीं अधिक था अतः वो जल्द ही परास्त हो गया। नागराज ने उसे सर्प बन्धनों में कैद कर लिया।

(इसे नागदीप ही ले चलता हूँ, वहीं पर इसे कैद रखने के समुचित साधन होंगे और तब इससे यह भी पता लग पाएगा कि इसके आने का मकसद क्या था क्योंकि इतना तो स्पष्ट है कि यह उन यात्रियों केलिए नहीं आया था और यह भी कि असुरों को ऐसी मशीनें कहाँ से मिली।)

******

स्थान - स्वर्णनगरी

"ध्रुव का कथन सत्य था, वो पुनः नगर में प्रवेश कर चुका है।"
एक डरे हुए से द्वारपाल ने आकर बताया

"कोई बात नहीं, इस बार हम भी तैयार हैं।"
ध्रुव ने दृढ़ता से कहा और कक्ष में उपस्थित अन्य सभी ने उसका समर्थन प्रदर्शित किया इस दौरान ज्वारासुर भी अंदर तक आ गया

"" निसन्देह मानव दूरदर्शिता में किसी से कम नहीं हैं, एक मानव ने कई वर्षों पूर्व ही स्वर्णनगरी के अंत को वर्णित करते हुए कहा था-
जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी,
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कथौ गियानी ।।
अर्थात समुद्र में स्वर्णनगरी है और स्वर्णनगरी में ज्वारासुर, यानी अंदर बाहर दोनों तरफ पानी, अब स्वर्णनगरी नष्ट होगी तो पानी पानी से मिल जाएगा और कोई कितना भी ज्ञानी क्यों ना हो वो इसे बचा नहीं पाएगा।""

इतना कहकर ज्वारासुर तेजी से चक्रवात की तरह घूमने लगा और उसके शरीर से जल की बूंदें गोली की तरह चारों ओर तबाही मचाने लगीं। कुछ स्वर्ण सैनिक इस वार का शिकार हुए तो कुछ ने अपनी ढालें आगे कर लीं, ध्रुव ने भी आड़ लेकर खुद को बचाया औऱ प्रखर को वार करने का इशारा किया। प्रखर के आदेश पर सभी स्वर्ण सैनिकों ने एक बार फिर से तीव्र ऊष्मा का वार किया और ज्वारासुर पुनः वाष्प में परिवर्तित हो गया।

"" फिर से... मुझे लगा कि तुम कुछ नया...""

ज्वारासुर अपनी बात खत्म करता इससे पहले ही ध्रुव और अन्य सैनिक ज्वारासुर की वाष्प को अलग अलग गैस कंटेनर में स्टोर कर चुके थे।

"इन सभी कन्टेनरों को तुरंत वहां पहुंचाओ जहां बताया था।"
ध्रुव ने चिल्लाकर कहा और सब उन कन्टेनरों को लेकर एक दूसरे कक्ष में ले जाने लगे जिसके द्वार पर लिखा था 'विद्युत आपूर्ति कक्ष'.... कमरा अंदर से किसी सामान्य पावर हाउस के जैसा था जिसमे कई सारे इलेक्ट्रिक ब्लॉक्स, पोल्स और सप्लाई की तारों का जाल फैला हुआ था। सारे कंटेनर अभी बस अंदर रखे ही गये थे कि कन्टेनरों के अंदर से ज्वारासुर की आवाज़ आने लगी

"" हम्म... ये कुछ नया था, लेकिन मैं वाष्प का घनत्व कम करके इन डिब्बों की दीवारों पर दबाव बढ़ा भी सकता हूँ और उससे इन्हें तोड़ भी सकता हूँ।""

भडाsssssssम...

एक जोरदार धमाके के साथ सभी कंटेनर फट गए और ज्वारासुर का शरीर जल रूप में एकत्रित होने लगा, इसी पल ध्रुव ने उस पर एक बड़े से पात्र में भरा पानी फेंका जो शायद इसी कार्य केलिए लाया गया था...

"" माना कि लोहे को लोहा काटता है पर जल केलिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बनी है जो  तू मुझपर जल से वार कर रहा है.. गुरु शुक्राचार्य ने तो तेरी बुद्धि की बहुत प्रशंसा की थी, तुझमे वो बात तो दिखी नहीं मुझे।""
ज्वारासुर ने व्यंग किया

"गुरुओं की बात को हल्के में नहीं लेना चाहिए ज्वारासुर वरना जीवन की परीक्षा मे फेल होने की नौबत आ जाती है, जैसे तेरे फेल होने की घड़ी आ गई।" बोलते बोलते ध्रुव ने फुर्ती से दो पोल गैस कटरों (जिन्हें वो पहले ही अपने साथ लेकर आया था) की सहायता से तोड़कर ज्वारासुर की ओर उछाल दिए जिनके तारों में तीव्र करेंट बह रहा था

 ""अगली मूर्खता, तूने शायद पढ़ा नहीं है की जल विद्युत का कुचआआआआहहहहह नहींsssssss...""

".... कुचालक होता है, पर समुद्री जल में पर्याप्त मात्रा में नमक होता है जो विद्युत के संचालक का अच्छा कार्य करता है। मैंने तुम पर जो पानी डाला था वो यही नमक युक्त समुद्री जल था... और हाँ जिस दूरदर्शी मानव का दोहा तुम सुना रहे थे उसी ने यह भी कहा है-
पानी ही ते हिम भया, हिम हो गया विलाई,
जो कुछ था सोई भया, अब कछु कहा ना जाई।।
यानी हाइड्रोजन और ऑक्सिजन से ज्वारासुर बना है और वही ज्वारासुर हाइड्रोजन और ऑक्सिजन में बंट गया, जो था वही हो गया अब कोई क्या कह सकता है।"

इतना कहते हुए ध्रुव कमरे से बाहर आ गया और कक्ष ज्वारासुर की चीखों से गूँज उठा, ध्रुव के बाहर आते ही एक औऱ तीव्र विस्फोट हुआ और समस्त स्वर्णनगरी में अंधकार छा गया।

"ये क्या हुआ.. सम्भवतः ये इसका नया वार है.." प्रखर ने कक्ष से बाहर निकले ध्रुव से पूँछा

"वो समाप्त हो गया सेनापति, विद्युत आपूर्ति इसलिए बाधित हुई है क्योंकि स्वर्णनगरी के विद्युत आपूर्ति कक्ष यानी पावर हाउस में इस विस्फोट के कारण काफी खराबी आ गयी होगी।" ध्रुव ने उत्तर दिया लेकिन अचंभित खड़े प्रखर और अन्य सैनिकों के लिए इतना पर्याप्त नहीं था

"पर वो मरा कैसे?"

"जल के विद्युत अपघटन से, मुझे पूरा विश्वास था कि उसे कंटेनर में बंद करना सम्भव नहीं होगा इसलिए मैंने वो सभी कंटेनर इस विद्युत आपूर्ति कक्ष में पहुँचवाये और उसके बाहर आते ही बिजली के खम्बे इसके ऊपर गिरा दिए, बस फिर क्या था खम्बे बन गए डायोड और जल के अणु हाइड्रोजन एवं ऑक्सिजन के परमाणु में  बंट गए।"

"और विस्फोट...."

"....  इसलिए हुआ क्योंकि दोनों ही गैसें अत्यधिक ज्वलनशील हैं। (अब मुझे वापस अमृतमणि के रहस्य में उलझना होगा) "


*****

समय - सतयुग

       मंथन जारी था। देवासुर संग्राम में भी देवों और असुरों ने इतने बल का उपयोग नहीं किया होगा जितना इस क्रिया में लग रहा था। क्या देवराज इंद्र और क्या असुरराज बलि सभी के बाहुबल का एक एक कतरा समाप्ति पर था जब सागर में एक हलचल होना आरंभ हुई। सभी के मुखमंडल पर हर्ष की आभा चमकने लगी। सागर के गर्भ ने अपना प्रथम रत्न त्याग दिया था। उसकी प्रथम शक्ति बाहर आ गई थी, एक ऐसी शक्ति जिसके विनाशकारी प्रभाव की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। पहले तो सभी उस उबलते हुए द्रव को अमृत ही समझ बैठे और असुर सैनिक कटैभ एवं देव सैनिक अरिनम, जिन्हें पूर्व में ही अमृत निकलते ही उसे अपने संरक्षण में करने का आदेश दिया गया था, उसे प्राप्त करने केलिए आगे बढ़े किन्तु जैसे ही वो उस द्रव की वाष्प के सम्पर्क में आए उनका भीमकाय बलिष्ठ शरीर मात्र अस्थियों में शेष रह गया, उन अभागों को पीड़ा में चीत्कार करने का भी अवसर नहीं मिला और यह दृश्य देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोग भय से जड़वत हो गए। पर सुरक्षा तो इसमें भी ना थी, ज्यों ज्यों द्रव की मात्रा बढ़ती जा रही थी उसकी वाष्प के प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि होती जा रही थी। देव और असुर दोनों ही त्राहिमाम कर उठे और ब्रम्हा जी से पूँछने लगे।

"हे पूज्य यह क्या वस्तु है जो इतनी मारक है, साक्षात मृत्यु।"

"यह विष है पुत्रों, काल के समान ही शक्तिशाली कालकूट है ये, हलाहल विष।"
ब्रम्हा ने बताया तो देवराज बोल उठे

"यह जो भी है मंथन की शर्त के आधार पर इसे असुर अपने अधिकार में लेंगे।"

"कैसी शर्त इंद्र?"
असुरराज बलि क्रोध में बोला

"वही की समुद्र के सभी चौदह रत्नों का विभाजन हममे क्रमवार होगा और आरम्भ असुरों से होगा।"
इंद्र के प्रतिउत्तर में बलि बोला

" उसका उल्लंघन तो तभी हो गया था जब इसे अमृत समझकर तुमने अरिनम को इसे प्राप्त करने भेज दिया था। तुम्हारे सब छल फलित नहीं हो सकते। हम ये हलाहल नहीं स्वीकारेंगे।"

देव और दानव दोनों ही विष को नहीं स्वीकारना चाहते थे किन्तु उसके प्रभाव फैलना तो शुरू हो ही गए थे।

"अब आप ही इसका निवारण करें पूज्य।"
सभी ने हाथ जोड़कर निवेदन किया

"इसका निवारण तो मात्र एक है, अमृत। विष और अमृत एक दूसरे की विपरीत शक्तियाँ हैं और एक की सहायता से ही दूसरे को मन्द किया जा सकता है। मंथन पुनः आरम्भ करो और अमृत प्राप्त कर इस विष को निष्क्रिय कर दो।"

"किन्तु अब तो उस स्थान पर पहुंचना भी असम्भव है, विष सब तरफ फैल चुका है।" पवन देव ने मन्थन के स्थान की तरफ देखते हुए निराशा से कहा

"तो फिर इसे किसी ऐसे पात्र में समेट लो जो इसके ताप तक को बाहर ना आने दे। इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।"
इतना कहकर ब्रम्हा अंतर्ध्यान हो गए।

"नारायण रक्षा करें।" ब्रम्हा की ओर से निराश होकर सभी देव और ऋषि विष्णु को पुकारने लगे किन्तु

"मुझे कुछ भी करने केलिए अपना यह कच्छप रूप त्यागना होगा और ऐसा करते ही मदरांचल जलमग्न हो जायेगा एवं मंथन की प्रक्रिया समाप्त हो जाएगी, यदि तुम्हे आगे के रत्न नहीं चाहिए तो बताओ, मैं अविलंब यह रूप त्याग दूँगा।"
नारायण ने उनकी पुकार का उत्तर दिया तो देव और दानव एक साथ बोल उठे

"अरे नहीं नहीं... ऐसा ना करियेगा नारायण।"

संसार पर भयानक संकट आ खड़ा था किन्तु अमृत के लोभ का आवरण अभी भी देवों और दानवों की दृष्टि को अवरुद्ध किये हुए था। सृष्टि विनाश के मुहाने पर थी, निर्माता ने मुख फेर लिया और संरक्षक विवश थे अब बस एक आशा शेष थी - विनाशक की।

"नारायण से तो हमें वैसे भी कोई खास आशा नहीं थी, हमे शिव के पास चलना चाहिए।"
शुक्राचार्य ने अपना विचार प्रकट किया

"शिव???... वो अव्यवस्थित ईश्वर... वो अघोरी, प्रेत, पिशाच और कीटों के भगवान भला क्या सहायता करेंगे, उनमे तो इतनी भी क्षमता नहीं कि वो स्वयं के निवास केलिए कोई दैवीय स्थान प्राप्त कर सकें इसलिए धरती पर ही रह गए और क्रोध तो इतना है कि सती की मृत्यु पर सम्पूर्ण सृष्टि के विनाश को ही आतुर हो गए थे, वो भला क्या रक्षा करेंगे... कोई और उपाय सोंचिये असुरगुरु।"
इन्द्र ने बुरे से मुखभाव के साथ कहा

"ये इन्द्र तो मूर्ख है, नारायण के बाद एक वही हैं जो कुछ कर सकते हैं। हम उनकी शरण मे जाएंगे।" ऋषि दधीचि और ऋषि कश्यप एक साथ बोल उठे

"धरती पर रहने वालों को कमतर नहीं आँकना चाहिए देवराज, समय आने पर वो स्वर्ग भी जीत सकते हैं।"
शुक्राचार्य ने व्यंग पूर्वक कहा और फिर सभी असुर और ऋषि कैलाश केलिए कूच कर गए।

 इसी मध्य

"मैनें पूर्व में ही आपको इस स्थिति केलिए चेताया था नारायण, अंततः वही हुआ।"

"सृष्टि की गतिविधियों को हम एक सीमा तक ही नियंत्रित कर सकते हैं महादेव, मैंने मन्थन होने से इसलिए नहीं रोका क्योंकि आज नहीं तो कल ये रत्न समुद्र के गर्भ से बाहर आने ही थे इनके लाभ और हानि का सामना सबको करना ही था, संकट से भागना कभी भी श्रेयस्कर नहीं होता क्योंकि अंततः उसका सामना करना ही पड़ता है और यह मूढ़ नहीं जानते कि जिसे यह इस प्रक्रिया का श्राप समझ रहे हैं वो विष भी उतना ही आवश्यक है जितना बाकी के रत्न या शायद उनसे भी अधिक क्योंकि विष-अमृत का संयोग अंनत शक्तिदायक है।"

"अवश्य है... किन्तु भविष्य में... वर्तमान का क्या?... वर्तमान जिस विनाश की स्थिति में आ खड़ा है उसका क्या?"

"वर्तमान में संसार इस बात का साक्षी बनेगा कि क्यों आप महा-देव हैं, धरती पर वास करना आपका चयन है, विवशता नहीं। साथ ही सबको ये भी ज्ञात होगा कि सृष्टि का विनाशक उसे विनाश की स्थिति से बचाने का भी सामर्थ्य रखता है।"

नारायण के इस कथन से कच्छप रूप नारायण के साथ साथ ध्यान मग्न शिव के मुख पर भी एक भीनी मुस्कान आ गयी और तभी समस्त असुर, असुरगुरु और कुछ ऋषिगण शिव के समक्ष उपस्थित हुए एवं उनका ध्यान भंग करने केलिए पुकार करने लगे। शिव ने आँखें खोलीं तो सबने उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराया और कुछ ही क्षण बाद सभी क्षीरसागर पर थे।

"अब ये ऐसे किस पात्र की रचना करेंगे जो सागर के लगभग चौथाई भाग तक फैल चुके हलाहल को समेट सके।"

इन्द्र ने व्यंग्यात्मक भाव से कहा पर उसके कथन पर किसी का ध्यान नहीं गया क्योंकि सबके नेत्र यह देख कर फैल चुके थे कि शिव हलाहल को अँजुरी में भरकर अपनी ग्रीवा में उतार रहे हैं। अपने आराध्य को ऐसा करते देख सब विह्वल हो उठे परन्तु रीढ़ विहीन निरीह प्राणी नागों ने उनकी पीड़ा बांटने की ठानी औऱ अपने समस्त समाज के साथ एकत्रित होकर किनारों से विषपान करना आरम्भ कर दिया। किनारों का जल मिश्रित विष इतना तीव्र तो नहीं था कि उन्हे गला सके किन्तु इतना क्षीण भी नहीं था कि उनके प्राण ना ले। सर्प विष ग्रहण करते जा रहे थे और प्राण त्यागते जा रहे थे परन्तु उनकी दृढ़ता में कमी नहीं आयी। उनके प्रयास देखकर अन्य प्राणी जैसे बिच्छू, ततैये, मकड़ियाँ एवं अन्य भी अपने सामर्थ्य अनुसार विष समेटने में लग गए। शिव को जब इस बात का भान हुआ तब उन्होंने अपने तप बल को उन सभी जीवों में वितरित कर दिया जिससे उनके अंदर विष को ग्रहण करने की क्षमता विकसित हो जाये किन्तु विषपान कर रहे जीवों की संख्या असीमित थी इसलिए उनके स्वयं की तपयोग क्षमता घटने लगी और अत्यंत सघन हलाहल उनकी ग्रीवा में नीचे उतरने लगा जो अभी तक उन्होंने अपनी आहार नाल को अवरुद्ध करके ग्रीवा में ही रोका हुआ था। इतना होने पर भी शिव तब तक नहीं रुके जबतक विष की अंतिम बूंद तक समाप्त नहीं हो गई और तब उन्होंने देखा की उनकी भार्या पार्वती ने अपने योगबल से विष को उनकी ग्रीवा के नीचे जाने से रोक रखा था। अंततः कालकूट को महाकाल की ग्रीवा के रूप में एक ऐसा पात्र मिलगया था जहाँ से उसके प्रभावों का बाहर आना असम्भव था।

सम्पूर्ण वातावरण महादेव की जयजयकार से गूँज उठा साथ ही उन जीवों की प्रशंसा से भी जिन्होंने शिव के साथ विष पान किया था। इसपर इन्द्र चिढ़ते हुए बोल पड़ा
"यदि शिव का तपबल हमें प्राप्त होता तो हम भी यह कर सकते थे।"

"अवश्य देव किन्तु स्मरण रहे कि प्रयास करने वाले को ही प्रतिरक्षा प्रदान की जाती है उसे नहीं जो पहले ही रक्षा की चित्कार करता फिरे।"
इतना कहकर शिव व अन्य जीव वहाँ से कूच कर गए और मन्थन की प्रक्रिया पुनः प्रारंभ हो गई।


*****

स्थान - नागदीप

"अभी तो मैं जा रहा हूँ पर कुछ ही देर में वापस आऊंगा, तब तक ये विचार कर लो कि पिटना है या सच बोलकर उपचार करवाना है।"

नागराज इस समय नागदीप के कैदखाने में था जहाँ सर्पासुर को कैद करने के बाद वो उस कार्य केलिए निकल पड़ा जिसके लिए वो नागदीप आया था, उसके हाथों में एक थैला था... एक अद्भुत थैला... साँपों से बना हुआ सर्प थैला। इसमें वो प्राचीन नाग ग्रन्थ थे जिन्हें पढ़ने केलिए नागराज अपने साथ ले गया था। सर्प नौका पर यात्रियों के चढ़ते वक्त कुछ सांप एक थैले का आकार लेकर इन पुस्तकों के साथ सर्प नौका से अलग हो गए थे और अब वो अपने स्वामी के साथ अपने गंतव्य तक आ चुके थे। पुस्तकों को नाग पुस्तकालय में रखने के बाद नागराज पलटा ही था कि विसर्पी विलाप करते हुए उसके सीने से लिपट गयी।

"विषांक को बचा लो नागराज.. बचा लो.. मैं एक बार फिर से अपना भाई खोना नहीं चाहती।"

"विषांक को??... क्या हुआ है उसे?"

विसर्पी नागराज को विषांक की हालत के बारे में बताती चली गयी औऱ वो अचंभित होता गया।

"असम्भव... विषांक की ऐसी हालत कैसे हो सकती है, उसके शरीर में तो हर वार की काट बनाने की क्षमता है तो फिर..."

"कुछ ज्ञात नहीं हो पा रहा है कि ऐसा कैसे हुआ है, नागदीप के सभी वैद्य अपना सम्पूर्ण कौशल प्रयोग कर चुके हैं किन्तु ना रोग का पता चल रहा है ना औषधि का।"
दोनों बात करते करते विषांक के कक्ष तक आ पहुंचे थे

" लेकिन ये हुआ कब, अभी कुछ ही दिनों पूर्व जब मैं ये पाण्डुलिपियाँ लेने यहां आया था तब तो विषांक पूर्णतः स्वस्थ था।"
नागराज ने विषांक के माथे पर हाथ फेरते हुए पूँछा तो पास खड़ी विसर्पी ने उत्तर दिया

"तब उसका रोग शायद प्रथम चरण में रहा होगा, किन्तु दो सप्ताह पूर्व उसकी स्थिति इतनी खराब हो गई की वो शक्तिहीन होकर स्थायी मूर्छा में चला गया है।"

"आश्चर्य... मेरी शक्तियों का तीव्र गति से क्षरण होना और विषांक का यूँ अचानक शक्तिहीन हो जाना... ये सामान्य नहीं है।"
अभी तक सिर्फ विषांक के लिए चिंतित विसर्पी नागराज की बात सुनकर तड़प उठी

"तुम्हारी शक्तियों का क्षरण.. कैसे?"

नागराज शरू से सर्पासुर को नागदीप लाने तक सारी घटना उसे एक ही सांस में बताता चला गया और फिर

"हो ना हो हम दोनों की शक्ति क्षरण का कारण एक ही है.... पर क्या ?"

"अमृतमणि ।।"

कक्ष के द्वार से आई इस ध्वनि ने नागराज और विसर्पी का ध्यान आकर्षित किया और बिना पल गंवाए ही दोनों आवाज़ की दिशा में पलटे जहां पर एक अत्यंत वृद्ध नागसन्यासी हाथों में दण्ड और कमण्डल लिए खड़ा था। दोनों की भावभंगिमा यह बताने केलिए पर्याप्त थीं कि उनके स्मृति पटल में इस चेहरे का कोई अभिलेख नहीं है।

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स्थान - अज्ञात

         "एक एक कर तेरह रत्नों के निकलने तक देव और असुर दोनों अपनी समस्त शारिरिक, यौगिक एवं तप शक्तियाँ क्षीण कर चुके थे। इतना ही नहीं उनकी नैसर्गिक सम, रज एवं तम शक्तियाँ भी समाप्ति पर थीं, स्वेद तो कब का समाप्त हो चुका था और तब तो रक्त भी अंतिम बूँदों में शेष था जब सागर तल में चौदहवीं बार हलचल होनी आरम्भ हुई। युगों के तप के पश्चात जब आराध्य के दर्शन होते हैं तब भी किसी को उतनी प्रसन्नता नहीं होती होगी जितनी हाथ मे अमृत पात्र लिए धनवंतरी को देखने के बाद देवों और असुरों को हुई थी। उन्हें ऐसा लगा जैसे शरीर से विदा लेते प्राणों को अनायास ही रोक लिया गया हो किन्तु... उस ब्रम्ह द्रव्य का सेवन इतना भी सरल नहीं था क्योंकि प्राण शेष हों ना हों लोभ तो शेष था ही। ना दिति पुत्र और ना ही अदिति पुत्र कोई भी उस दिव्य पात्र को दूसरे के अधिकार में नहीं देना चाहता था। ऐसी स्थिति में युद्ध निश्चित था परन्तु हुआ नहीं, हुआ क्या? नृत्य, जो परिस्थिति के पूर्णतः विपरीत था पर परिस्थिति की परवाह किसे होती है जब सामने इतनी रूपवती नवयौवना अपने सौंदर्य के बाण चला रही हो, क्या देव क्या दानव सब उसके बाणों से चित थे, यूँ लगा मानों समस्त संसार को मोहने ही आई है - मोहिनी। किसी ने नहीं देखा कि उसके आगमन के साथ ही मदरांचल सागर जल में विलीन होने लगा था, यदि देख लेता तो सम्भवतः समझ जाता कि विष्णु ने नई क्रीड़ा आरम्भ कर दी है। मूढ़ असुर उसके मोह पाश में ऐसे बंधे कि उसे अमृत वितरण का प्रभारी ही बना दिया और विष्णु ने देवों को अमृत एवं असुरों को मदिरा पान कराया।"

"ये पूर्ण घटनाक्रम मुझे ज्ञात है फिर तुम मुझे क्यों..."
अंधकार के मध्य प्रकाश की एक बूंद जितने प्रकाश भरे एक कक्ष में दो आकृतियों के बीच के इस सम्वाद में जब दूसरे, जो सम्भवतः बंधनों में जकड़ा हुआ था, ने पहले को टोकने का प्रयास किया तो पहले ने पलटकर अपने होठों पर दायीं तर्जनी रखते हुए कहा

" श्श्श्श्श्श्श्श... अभी मेरी बात पूरी नहीं हुई... हाँ तो मैं बता रहा था कि अमृत, वो अमृत जिसे प्राप्त करने केलिए देव और असुर ने संयुक्त प्रयास किये थे, देव उसकी एक बूंद भी असुरों से बांटना नहीं चाहते थे। इतना ही नहीं विष्णु की चाल को भाँपकर जब एक असुर, राहु, ने अमृत पान कर लिया तो विष्णु ने उसकी अमरता को उसके जीवन का सबसे बड़ा श्राप बना डाला, उसे विभाजित करके। और तो और कहानी इतने पर भी समाप्त नहीं हुई, अमृत से ऊर्जा पाए देवों ने स्वर्ग प्राप्ति हेतु उसी क्षण देवासुर संग्राम आरम्भ कर दिया, मन्थन से अर्धम्रत असुरों को पूर्णतः म्रत करके ही दम लिया देवों ने।"

"बस करो... आखिर तुम बताना क्या चाहते हो?"
दूसरे शख्स ने झुंझलाते हुए कहा

"ये कि वास्तविक छल उसे कहते हैं जो देवों और विष्णु ने असुरों के साथ किया, ना कि उसे जो मैं कर रहा हूँ।"
पहले शख्स ने क्रोध में चीखकर दूसरे को लात मारते हुए अपने शब्द कहे, दूसरा शख़्स इस वार से कक्ष की दीवार से टकराकर ज़मीन पर जा गिरा। पहला शख्स उसके एकदम पास जाकर शांत भाव से बोला

"आशा करता हूँ कि अब तुम दोबारा यह नहीं कहोगे की मैनें तुम्हे छल से बन्दी बनाया है।"

*****

स्थान - स्वर्णनगरी

"यहाँ मौजूद समुद्र मंथन की कथा कुछ एक फेरबदल के बाद लगभग वही है जो पुराणों और अन्य ग्रन्थों में वर्णित है। देवासुर संग्राम के बाद देवताओं को स्वर्ग मिल गया और कहानी आगे बढ़ गई पर ये कहानी अमृत से अमृतमणि तक कैसे गई इसका कोई वर्णन नहीं है.... ह्म्म्म... शायद ये भी वास्तविकता से अलग हो।"

मन्थन की पूरी प्रक्रिया को देख लेने के बाद निराश ध्रुव स्वर्णनगरी के महागुरु से वार्ता कर रहा था।

"ये ही वास्तविकता है ध्रुव... तुम जो अभी देख कर आए हो वो कोई नाट्य रूपांतरण नहीं अपितु वास्तविक घटनाक्रम था एवं सभी पात्र भी वास्तविक ही थे।"

"असम्भव।।. . . यह कैसे हो सकता है... मुझे तो यही लगा कि आप लोगों ने लिखित रिकॉर्ड रखने के बजाए वीडियो लाइब्रेरी बना रखी है जो 3d प्रोजेक्टर से एक फ़िल्म के रूप में पौराणिक साहित्य दिखाती हैं जिन्हें आपने इसी कार्य केलिए पहले ही फिल्माया हुआ है।"
महागुरु के कथन से अचंभित ध्रुव की जिज्ञासा शांत करते हुए महागुरु ने बताया

" 'असम्भव' मात्र एक प्रश्न है जिसका उत्तर जीव के सामर्थ्य में होता है जैसे तुम्हारे इस असम्भव का उत्तर विज्ञान में छुपा है। जिस प्रकार ध्वनि तरंगें कभी समाप्त नहीं होतीं अपितु ब्रह्माण्ड में मुक्त विचरण करती रहती हैं ठीक उसी प्रकार से प्रकाश तरंगें भी समाप्त नहीं होती हैं, वो भी युगों तक ब्रह्माण्ड में विचरण करती रहती हैं, हम चाहें तो उन्हें एकत्रित करके उनके द्वारा घटित दृश्य को पुनः देख सकते हैं। जैसे जब तुम रात में किसी टिमटिमाते तारे को देखते हो तो वो तुम कई सौ वर्ष पूर्व घटी घटना को देखते हो क्योंकि उसकी तरंग तुम तक अब पहुंची है। इसीप्रकार अभी तुमने जो देखा वो मन्थन के समय की दृश्य तरंगें थीं जिनके माध्यम से तुम वो घटनाक्रम दोबारा देख पाए। उस कक्ष में हमने अपनी समस्त ऐतिहासिक घटनाओं की दृश्य तरंगों को अलग अलग ट्यूब्स में एकत्रित कर रखा है ताकि हम भविष्य को भूत से परिचित करा सकें।"
महागुरु ने अपनी बात समाप्त की

"अद्भुत टेक्नोलॉजी है ये।"
ध्रुव अभी पूरी प्रशंसा कर भी नहीं पाया था कि अचानक नगर के सुरक्षा कक्ष में एक जोरदार अलार्म बजने लगा

"ये कैसा अलार्म है?"

"यह संकेत है कि नगर में किसी मूल्यवान वस्तु की चोरी हुई है।"
एक सैनिक ने बताया

"सभी सैनिक ठीक से तलाश करें कि क्या गायब हुआ है।" प्रखर ने आदेश दिया और कुछ पलों के बाद

"सभी वस्तुएं अपने स्थान पर ही हैं सेनापति।"
एक सैनिक ने आकर बताया

"हम्म... लगता है मशीनों में पानी भर जाने औऱ फिर विद्युत आपूर्ति बाधित होने के कारण अलार्म में कोई खराबी आ गयी है इसलिए बज उठा।"
प्रखर चैन की सांस लेते हुए बोला

"नहीं... चोरी तो हुई है।" ध्रुव ने कुछ सोंचकर कहा तो प्रखर ने व्यंग्यात्मक लहजे में पूँछा

"अच्छा... तो ये भी बता दो की कौन सी वस्तु चोरी हुई है।"

"अमृतमणि "

*****

स्थान - अज्ञात

          अंधकारमय कक्ष में एक व्यक्ति अपने आसन पर बैठा सामने उपस्थित हाथ से अमृतमणि ले रहा था जबकि देने वाले हाथ का कोई स्वामी नहीं था, वो मात्र एक कटा हुआ हाथ था जिसके कटे हुए हिस्से से रक्त के स्थान पर जल टपक रहा था। अमृतमणि को उस रहस्यमय शख़्स को सौंपने के बाद वो हाथ पूरी तरह से जल में बदल गया और वहीं बह गया।

" मुझे पूर्ण विश्वास था कि तुम प्राण देकर भी अपना कार्य समाप्त करोगे ज्वारासुर, और आखिरकार तुमने अपने एक हाथ को अपने शरीर से अलग कर जल रूप में अमृतमणि के साथ यहाँ तक भेज ही दिया। तुम्हारा यह बलिदान व्यर्थ नहीं होगा बल्कि ये देवों के पतन का प्रथम अध्याय बनेगा।"

"तुम जो चाहते थे वो तुमने प्राप्त कर लिया, अब इसे अधिक बढ़ाना उचित नहीं होगा।"
उस कक्ष में अभी अभी प्रवेश किये सन्यासी के वेषधारी व्यक्ति ने समझाने के भाव से कहा लेकिन

"अभी नहीं आचार्य, अभी नहीं... अभी तो इस अमृतमणि की विभक्त शक्तियां भी प्राप्त करनी हैं... पर ये भी पर्याप्त नहीं है क्योंकि मेरी अभिलाषा मात्र अमरत्व प्राप्त करना नहीं है...  मेरा लक्ष्य है असुर जाती के साथ युगों पूर्व हुए हुए उस छल का प्रतिशोध जो केवल और केवल देवों को पुनः शक्तिहीन बना के ही होगा।"

"और ये होगा कैसे?"

"युगों पूर्व हुए घटनाक्रम को दोहरा के, तब विषधरों ने विष खोया था, अब अमृतधारी अमृत खोएंगे...."

"किन्तु वो छली देव तब भी युद्ध का प्रत्यक्ष भाग नहीं थे उन्होंने मानवों के माध्यम से लड़ाई लड़ी थी... क्या पता इस बार भी.."

मैं ऐसी व्यवस्था करूँगा कि इस बार उन्हें प्रत्यक्ष लड़ना ही होगा... परन्तु उसके पूर्व मुझे प्राप्त करनी हैं अमृतमणि की विभक्त 9 दिव्य मणियों में से शेष 8 मणियाँ ।"

"अर्थात एक मणि तुम पहले ही प्राप्त कर चुके हो... "
आचार्य ने चौंककर पूँछा और उत्तर में उस व्यक्ति ने हवा में हाथ घुमाया और उसके हाथ मे प्रकट हुआ एक जाना पहचाना हुआ मुकुट जिसके शीर्ष पर एक मणि विद्यमान थी, उस व्यक्ति ने मणि को मुकुट से अलग कर दिया

"जी आचार्य।" उसके मुख पर एक कुटिल मुस्कान तैर गयी जो मणि के प्रकाश में दृश्य थी।

*****

स्थान - महानगर

         महानगर, भारत के हर नगर की तरह, जितना विशाल उतना ही बीमार, हर बड़े नगर की तरह यहाँ के भी अस्पताल प्रायः बीमारों से भरे ही रहते हैं, एक जाता है तो कई नए आ जाते हैं। सागर किनारे बने ऐसे ही एक बड़े अस्पताल 'महानगर जिला अस्पताल' में एक ऐसे मरीज़ का इलाज चल रहा था जिसके शरीर के घावों की संख्या गिनने में ही पूरे दो घंटे लगे थे। ऑपरेशन कक्ष के बाहर कुछ पुलिस वाले, जिन्हें उस मरीज के पास से पहचान का कोई चिन्ह नहीं मिला था, उन नागरिकों से पूँछ ताछ कर रहे थे जो मरीज़ को वहाँ लेकर आए थे।

"हम ज्यादा कुछ नही जानते साहब, हम तो रोज़ की तरह उस शांत किनारे के पास जॉगिंग के लिए गए थे जहाँ पर हमने कई साँपों की लाशें देखीं और उनसे थोड़ी ही दूर पर इस लड़की का खून से लथपथ शरीर पड़ा था, चेहरे के घावों के कारण पहचानना भी सम्भव नहीं था। पहली नज़र में तो हमने इसे मरा ही समझा था पर पास जाकर देखा तो इसकी साँसें चल रहीं थीं इसलिए हम इसे यहाँ ले आये।"

"ठीक है तुम लोग जा सकते हो.... साँपों की लाशें... नागराज से कुछ मदद मिले शायद।"
इस विचार के साथ इंस्पेक्टर एक कांस्टेबल को वहाँ छोड़कर निकल गया लेकिन उसे पता नहीं था कि फिलहाल उसे नागराज की कोई मदद नहीं मिलने वाली थी क्योंकि वो कहीं और व्यस्त होने वाला था।

*****

         'वेदाचार्यधाम' जिसमें कमरों की सही संख्या बता पाना लगभग असंभव है क्योंकि जितने कमरे दिखते हैं उससे कहीं अधिक नहीं दिखते हैं। इतना ही नहीं, इसमें प्रवेश भी वही कर सकता है जिसे ऐसा करने की इजाजत मिली हो... कम से कम आज से पहले तक तो ऐसा ही था... पर इस शख़्स ने जितनी सरलता से इस घर मे प्रवेश किया था उसे देखकर लगता है कि अब ऐसा नहीं रहा क्योंकि देखने से तो ये व्यक्ति कहीं से भी प्रवेश की इजाजत पाया हुआ नहीं लगता, ये तो राक्षस की तरह दिखता है, कुरूप और वीभत्स। एक एक कर कई कमरे पार करते हुए वो शख़्स वेदाचार्य के कक्ष तक जा पहुंचा और उसे देखकर वेदाचार्य बोल पड़े

"आओ नागराज, क्या तुम्हे अमृतमणि के बारे में कुछ पता चला?"

"अभी तो नहीं, किन्तु एक मार्ग समझ मे आया है औऱ उसके लिए मुझे अमृतमणि की सहयोगी तीनों काल मणियों की आवश्यकता है जो आपके तिलस्म में रखी हैं, यदि आपको ऐतराज ना हो तो।"
आश्चर्य... वेदाचार्य इस शख्स को नागराज बुला रहे हैं और ये भी उसी की आवाज़ में जवाब दे रहा है

"अवश्य... उन अतिशक्तिशाली मणियों की वजह से दोबारा म्यूज़ियम पर हमला ना हो इसलिए तुमने उन्हें मेरे तिलस्म में छुपाने का निर्णय किया था, अब तुम्ही उन्हें वापस निकलवाना चाहते तो मैं भला मैं क्यों ऐतराज करूँगा।"
वेदाचार्य उस शख्स के साथ कमरे से निकलकर घर के पिछले हिस्से में जा पहुंचे जहाँ पर देखते ही देखते एक कमरा नज़र आने लगा जिसके अंदर रखी थीं तीनों कालमणियाँ, वो शख्स कमरे में कदम रख पाता इससे पहले ही मुंह के बल गिर पड़ा... उसके पैर सर्परस्सी में जकड़े हुए थे

"तुमने घर के तिलस्म और दादाजी को भले ही धोखा दे दिया हो किन्तु इस घर की सुरक्षा सिर्फ तिलस्म पर ही निर्भर नहीं है, नागराज यानी मेरे एक सर्प ने तुम्हे घर मे घुसते देखकर मुझे संदेश भेज दिए थे। वैसे तुम्हारे आने का कारण तो नज़र आ रहा है तो अब तुम ये तय करो की अपना और अपने मालिक का नाम मार खाकर बताओगे या बताकर मार खाओगे।"
दीवार की मुँडेर पर बैठा नागराज उसे धमका रहा था

"विरूपक नाम है मेरा और इससे अधिक तुम यमराज से पूँछना।" स्वयं को सर्प बन्धनों से मुक्त करते हुए उसने मणियाँ उठाने के प्रयत्न किया किन्तु तब तक वेदाचार्य तिलस्म को समेट चुके थे जिसने उसका क्रोध भड़का दिया

"ये तूने ठीक नहीं किया बुड्ढे।" उसने वेदाचार्य को लात मारने की कोशिश की लेकिन उसका वार सिर्फ कुछ धूल ही उड़ा सका, वेदाचार्य को नागराज ने नागरस्सी के सहारे वहाँ से हटा लिया था

"बुजुर्गों पर हाथ नहीं उठाना चाहिए और तूने लात उठाने की जुर्रत की... कसम पैदा करने वाले की अगर तुझे सबक नहीं सिखाया तो मेरा नाम भी ना...  नागराज नहीं।" नागराज मुँडेर से कूदकर ज़मीन पर आ गया था और आते ही पीछे तीन तरफ से धूल का गुबार उठ गया।

"मैनें भारती से कहा था की केबल वाले को बोलकर स्टार गोल्ड हटवा दे लेकिन नहीं अब झेलो इस साउथ इंडियन नागू को।" वेदाचार्य ने सर पीटकर खुद से कहा "किन्तु ये जो भी है इससे मुझे नागराज की तरंगें क्यों प्राप्त हो रही हैं और शायद इन्ही तरंगों की वजह से ये घर के तिलस्म को धोखा दे पाया।"
वेदाचार्य यदि नेत्रहीन ना होते तो देख पाते विरूपक के सीने में लगे उस यंत्र को जो नागराज की तरंगों का उत्सर्जन कर रहा था जिसे वो तरंगें उस यंत्र से प्रेषित की जा रही थीं जो चुपके से नागराज की बेल्ट में लगाया गया था....

****

समय - सतयुग

"हमारा एक और प्रयोग विफल रहा देवेन्द्र।"
स्वर्ग की सभा मे देव विज्ञानी शशिगुप्त इन्द्र के समक्ष सर झुकाए खड़े थे।

"इसका एक ही अर्थ है कि विष-अमृत को संयुक्त करना फिलहाल सम्भव नहीं है।"
इन्द्र के स्वर में विवशता झलक रही थी

"ब्रम्ह देव ने कहा था कि विष अमृत का संयोजन असीमित शक्ति प्रदान करेगा किन्तु ये दो विपरीत द्रव मिलकर निष्क्रिय हो जाते हैं, इन्हें एक करने का कोई उपाय समझ नहीं आ रहा।" शशिगुप्त ने अपनी बात खत्म की और तभी एक सन्देश वाहक चिल्लाता हुआ आया

"अनर्थ हो गया देवराज अनर्थ... देव अरुणोदय पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे जब एक सर्प ने उन्हें डस लिया और उसके दंश से उनकी मृत्यु हो गई।"

"असम्भव... अमृत पान किये हुए देव की मृत्यु कैसे हो सकती हैं।"
इन्द्र स्तब्ध था

"हो सकती है देवराज... हलाहल में अमृत के प्रभावों को नष्ट करने की क्षमता है।"
शशिगुप्त ने अपने प्रयोगों के आधार पर ये निष्कर्ष निकाला था।

"यदि ऐसा है तो अपने अमरत्व की रक्षा हेतु हम संसार से विष का समूल नाश कर देंगे। .... शशिगुप्त आप शीघ्र ही ऐसा कोई अविष्कार करें जिसके प्रयोग से विष को समाप्त किया जा सके"
इन्द्र ने आदेश सुना दिया था, परिणामों की परवाह किये बिना। उसे भान नहीं था कि परिणाम भयानक होने वाले थे।

****

स्थान - स्वर्णनगरी

"यदि ज्वारासुर अमृतमणि पहले ही चुरा चुका था तो फिर वो दोबारा नगर में क्यों आया?.... तुम्हारे हाथों मोक्ष प्राप्त करने।"
प्रखर ने ध्रुव को गलत साबित करने के इरादे से कहा पर ध्रुव के पास इस सवाल का भी जवाब मौजूद था

"ताकि हमें पता ही ना चले कि अमृतमणि की चोरी की जा चुकी है... (अब तो इसके रहस्य को जानना और भी महत्वपूर्ण हो गया है।). . . धनजंय मुसीबत में है महागुरु हमें तुरन्त ही उसकी तरंगों से उसे तलाशना होगा।"

कुछ क्षणों बाद

"धनजंय की तरंगों का कोई पता नहीं मिल रहा है महागुरु।" प्रखर ने बताया

"तो फिर अमृतमणि की तरंगों को तलाशिये, मेरे हिसाब से दोनों एक ही जगह पर होने चाहिए।"

"अमृतमणि-अमृतमणि-अमृतमणि... जब से आए हो एक ही रट लगाए जा रहे हो, जिस वस्तु के अस्तित्व से ही हम परिचित नहीं हैं उसकी तरंगों को कैसे तलाश करेंगे।"
प्रखर ने झल्लाते हुए ध्रुव से कहा

"सेनापति... ध्रुव हमारे लिए सम्माननीय है उसके साथ ऐसा आचरण ठीक नहीं।"
महागुरु ने टोका पर ध्रुव ने शांत होते हुए कहा

"कोई बात नहीं महागुरु मुझे पता होना चाहिए कि आपके पास अमृतमणि की तरंगों का डेटा नहीं..... है... डेटा है.... सेनापति कुछ घण्टों पूर्व की उन तरंगों का विश्लेषण कीजिए जो नगर से समुद्र में गयी हैं।"

"दो तरंगें हैं।"

"एक ज्वारासुर कि है और दूसरी अमृतमणि की... इस दूसरी तरंग की वर्तमान स्थिति पता करिये सेनापति।"

"हमारे यंत्रों के हिसाब से इन तरंगों की वर्तमान स्थिति है...."

******

. . . . नागदीप

"आप कौन हैं और यहाँ कैसे..."
नागराज ने उन वृद्ध नागसन्यासी से पूँछा

"यह नागबाबा हैं नागराज, पाताल में बसे नागलोक के गुरु, यह नागकुमारी के बुलावे पर यहाँ आये हैं नागकुमार के उपचार हेतु।"
नागबाबा के साथ ही कक्ष में प्रवेश किये नागदीप के मंत्री ने बताया। दोनों ने उन्हें प्रणाम किया और उसके बाद नागबाबा ने बताना शुरू किया

"युगों पूर्व हुए समुद्र मंथन में जब विष और अमृत की प्राप्ति हुई थी तब सभी इनके विशिष्ट(individual) प्रभावों से ही परिचित थे, किसी को भी यह नहीं पता था कि इनके संयुक्त प्रभाव इनके विशिष्ट प्रभावों से कहीं अधिक शक्तिशाली हैं , इतने की अमर देवता भी उसकी शक्ति से पार नहीं पा सकते थे। ब्रम्हा ने जब इस तथ्य से देवों को अवगत कराया तो अपने सम्पूर्ण सामर्थ्य के साथ वो विष-अमृत को संयुक्त करने में लग गए। ज्ञान, विज्ञान, लौकिक, पारलौकिक हर प्रकार की क्षमता प्रयोग में लाई गई किन्तु हर बार विष और अमृत एक साथ आते ही एक दूसरे को नष्ट कर देते थे। इन्ही प्रयोगों के दौरान विष और अमृत नाम के दो अद्भुत प्राणियों का निर्माण भी हुआ जिन्हें देवों ने ब्रह्माण्ड में मुक्त छोड़ दिया इस आशा में की शायद कहीं इनकी शक्तियां संयुक्त हो सकें।"

"किन्तु ऐसा अभी तक हुआ नहीं क्योंकि ये दोनों अभी भी भटक रहे हैं, पर इन्होनें अपनी उतपत्ति के बारे में तो कुछ और ही बताया था।"
नागराज ने विष-अमृत से अपनी मुलाकात याद करते हुए कहा (*)

(*)इस विषय मे जानने केलिए पढ़ें नागराज का विशेषांक "विष-अमृत"

"वो बताया था जो इनके मष्तिष्क में भरा गया है।" नागबाबा ने नागराज के सवाल का उत्तर देकर अपनी बात आगे बढ़ाई

"लेकिन विष और अमृत को संयुक्त करने का जो कार्य देवता नहीं कर सके वो युगों बाद अनजाने में ही इंसानों ने कर दिया। नागपाशा और गुरुदेव की महत्वकांक्षा ने नागपाशा की कोशिकाओं औऱ मणिराज की राख को मिलाकर कृत्रिम गर्भ में जिस शिशु को जन्म दिलाया उसकी कोशिकाओं में नागपाशा से प्राप्त अमृत और रक्त में मणिराज से प्राप्त विष उपस्थित था। इस शरीर में विष अमृत साथ होकर भी साथ नहीं थे इसलिए दोनों ने एक दूसरे को नष्ट नहीं किया और एक ही स्थान पर संयुक्त होने के कारण विषांक को जन्म से ही अपरिमित शक्तियाँ प्राप्त हुईं।"

"हम्म... तो ये राज़ है विषांक की शक्तियों का... लेकिन अब उसकी ये हालत किस कारण से है।" नागराज ने पूँछा जबकि विसर्पी नागबाबा को बड़ी ही तल्लीनता से देख रही थी

"सर्पदंश से एक देव की मृत्यु के पश्चात इन्द्र ने विष के समूल नाश के उद्देश्य से एक ऐसे अस्त्र का निर्माण कराया जिसमें विष को समाप्त करने की अद्भुत क्षमता थी।"

"और वो अस्त्र थी..... अमृतमणि"

*****

रहस्य अभी और गहरा रहा है,
कोहरा थोड़ा और छा रहा है,
लेकिन हम सभी को पता है कि कोहरा जितना घना होता है धूप भी उतना ही खिल कर आती है, इस कोहरे के बादल के पीछे से भी सुनहरी धूप निकलेगी इस महागाथा के अगले भाग "अमृतमणि" में।

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